शैलेंद्र जी के बारे में लिखने की बिल्कुल ही इच्छा नहीं थी क्योंकि मुझे मालूम है कि जैसे-जैसे यादों की चारदीवारी में घुसने की कोशिश करूंगा, मैं अपने आंसूओं को रोक नहीं पाऊंगा... कभी वो अपनी लिखी गजलों और नज्मों को सैकड़ों हजारों बार गुनागुनाकर सुनाए होंगे... अब मैं उनके द्वारा सौंपी गई किताब की पहली प्रति में लिखी गजलों और नज्मों को कई कई बार पढ़ रहा हूं... शुक्रवार (18 मई) देर रात साढ़े तीन बजे जब शारदा हॉस्पीटल के एक कर्मचारी ने मुझे फोन पर बताया कि शैलेंद्र जी का एक्सीडेंट हो गया है, वो भी ग्रेटर नोएडा एक्सप्रेस हाईवे पर... तो दिमाग जैसे सुन्न पड़ गया... बार बार ये सवाल उठने लगे कि आखिर रात के साढ़े तीन बजे वो ग्रेटर नोएडा एक्सप्रेस वे पर क्या कर रहे थे... लेकिन मन में कहीं न कहीं शैलेंद्र जी की लिखी नज्म ही याद आ रही थी
"मैं भटक रहा था डगर-डगर, मैं उजड़ रहा था नगर-नगरमेरा दिन नहीं निकला कभी, मेरी रात होती थी रात भरमेरी बेखुदी मेरे साथ थी, मेरे दिल में एक ही बात थीकि हो राह कितनी ही पुरखतर, मैं रहूंगा खुद को तलाश कर"
क्या शैलेंद्र जी खुद को तलाश करने निकले थे... दरअसल शैलेंद्र की तलाश बरसों की है... चाहे वो मुंबई का वाकया हो, या फिर दिल्ली का... घंटों यूं ही इधर उधर भटकना। मुंबई में कभी मेरी बाइक से तो कभी यूं ही पैदल... वर्ली सीफेस, जुहू बीच, मरीन ड्राइव्स, या फिर नरीमन प्वाइंट... इसी यायावरी जिंदगी को वो दिल्ली में भी जीने की कोशिश कर रहे थे... देर रात एक्सप्रेस हाईवे पर चले जाना... या फिर फिल्म सिटी के इर्द गिर्द चक्कर लगाना... लेकिन इसके बावजूद उनके मन के किसी न किसी कोने में हलचल बनी रहती, हर वक्त बेचैनी... आखिर ये कौन सी तलाश थी। खुद वो लिखते हैं
"मैं यू दर-ब-दर, यूं डगर-डगर, किसे ढूंढता हूं नगर-नगरतू समझ सकेगा न हमसफर, ये तलाश ही कोई और है"
वाकई एक ऐसी तलाश में जुटे थे शैलेंद्र, जिसके बारे में कोई भी दावा के साथ कुछ नहीं कह सकता... क्योंकि ये सब कहने से पहले उस हद तक साहस भी चाहिए... और मंजिल की तलाश भी एक बहुत विचित्र तरीके से होती थी। वो मौत के बेहद करीब से होकर गुजरना चाहते थे। गजलों की किताब पूरी करने के लिए उन्होंने शराब की दुनिया में गोते लगाकर जिस तरह से अपनी जिंदगी के साथ ही भयंकर एक्सपेरिमेंट करने की कोशिश की... वो बहुत डरावनी है... कई बारगी उन्होंने ये प्रयोग मुंबई के मेरे कमरे में करने की कोशिश की है। तब मैं भीतर से डर जाता था और मेहा भाभी ( शैलेंद्र जी की पत्नी ) को फोन कर मुंबई भी बुला चुका था। किसी भी काम को करते समय वो हद से भी गुजर जाना चाहते थे। ऐसे वक्त में उन्हें किसी भी बात का ख्याल नहीं रहता था। एक बार जब लोअर परेल में उनके कमरानुमा फ्लैट में पहुंचा तो देखता हूं कि वो किसी से बात कर रहे हैं... मैं उस समय सन्न रह गया कि उनका मोबाइल तो दूर कहीं पड़ा है... जबकि सिर्फ हाथ कान में चिपकाए हुए वो लगातार आधे घंटे तक किसी से बात करते रहे... मैं सही बताऊं तो उस समय डरकर तुरंत बाहर निकला, उनके फ्लैट के दरवाजे लगाए और अपने घर वापस आ गया। इस बात का जिक्र मैंने उस समय स्टार न्यूज में उनके करीबी गौरव बैनर्जी से भी किया था। तो शैलेंद्र ने इसके बारे में बिना कुछ बताए बात को टाल दी। लेकिन हकीकत वो खुद अपनी एक कविता में भी बयान करते हैं... अंतत: नाम की अपनी कविता में वो लिखते हैं
"आखिकार...अंतत: पता नहीं किससे रोज होती है निरंतर बातचीतपता नहीं"
extreme में जाना शैलेंद्र जी का शौक ही नहीं बल्कि नियति थी। और इस नियति को उन्होंने खुद चुना था। आखिर कैसे, ये बताने से पहले मैं उनकी किताब कुछ छूट गया है में भूमिका की आखिरी पंक्ति उद्धृत कर रहा हूं। उन्होंने लिखा है कि - "मुंबई के लोअर परेल का वो एक कमरा नहीं होता तो शायद इस पुस्तक का सफर अधूरा ही रहता।"
उन्होंने सच लिखा है कि उस एक कमरे के बिना न तो शायद ये किताब पूरी हुई होती... और न ही उनकी जिंदगी का एक बड़ा अंश पूरी दुनिया के सामने आया होता... और न ही मेरी और उनकी घनिष्ठता हो पाती। शैलेंद्र जी गजलों की किताब लिखना शुरू कर चुके थे... और ज्यादातर वक्त उनका मेरे लोअर परेल के उसी फ्लैटनुमा कमरे में ही गुजरता था। इस एक कमरे से तो कई कहानियां जुड़ी हैं... लेकिन सबसे मजेदार कहानी आपको बताता हूं... पहली बार मुझे फ्लाइट से मुंबई से कोलकाता जाना था। उससे पहले की रात मेरे कमरे में मंडली जमी हुई थी... रात में गप्पें मारने के लिए मेरे साथ शैलेंद्र जी और दो दोस्त भी मौजूद थे। रात भर हमलोगों ने खूब गप्पें मारीं। शैलेंद्र जी उस समय खूब शराब पीते थे... उस दिन भी उनका मन था... उनका साथ देने के लिए एक दोस्त तो तैयार था... लेकिन मेरे आलावा एक और शख्स शराब नहीं पीते थे... इसलिए शैलेंद्र शराब पीने के लिए हमें रात भर डराते रहे ... कि फ्लाइट में सफर कर लेने से पहले शराब पीना बेहद जरूरी है... क्योंकि फ्लाइट में एक्सिडेंट होने के बाद बचना बिल्कुल भी नामुमकिन है। इसलिए नशे में इंसान को डर नहीं लगता... तो ये है शैलेंद्र जी का मिजाज... जाते जाते मैंने अपने फ्लैट की चाबी शैलेंद्र जी तो दे दी... क्योंकि उन्होंने साफ कर दिया था कि इस कमरे पर अब मेरे से ज्यादा उनका हक हो गया है। जब करीब दो हफ्ते बाद मुंबई वापस आया तो देखता हूं कि चारों तरफ शराब की बोतलें बिखरी पड़ी हैं... पानी रखने के टब के भीतर कई बोतलें पड़ी हैं... गैस सिलेंडर, चूल्हे, कपड़े रखने के दराज... हर तरफ शराब की बोतलें... ऐसा नहीं था कि शैलेंद्र कोई बहुत पुराने शराबी हों... लेकिन उनको extreme में जाना अच्छा लगता था। होश खोकर दुनिया को देखने का उनका बहुत बडा़ शौक था। वो खुद लिखते हैं...
"फिलहाल तो हमको बहने दोअपना हर दुख-सुख सहने दोहमको भी शराफत मालूम हैहमको भी समझ है दुनिया की"extreme तक पहुंचने के उनके इस शौक में मुझे कई बारगी भारी परेशानी का सामना करना पड़ा। कई बार मैं irritate हुआ, कई बार उनसे लडा़ई की... लेकिन उनका व्यक्तित्व ही ऐसा था कि मैं कभी दूर नहीं हो पाया... चाहे इसके लिए मुझे दफ्तर पहुंचने में देरी हुई हो... या फिर दूसरी परेशानी का सामना करना पडा़। एक वाकया बताता हूं... मुंबई में जब उनके फ्लैट पहुंचा तो वो नशे में थे... और मन ही मन कुछ गुनगुना रहे थे... उन्होंने मेरी तरफ बिल्कुल भी ध्यान नहीं दिया। तो मैं भी वापस अपने फ्लैट (लोअर परेल में मेरा और उनका फ्लैट आमने सामने था) में आ गया। दूसरे दिन मैं फिर उनके पास पहुंचा... तो वो उस वक्त भी नशे में थे। तीसरे दिन पहुंचा तो देखता हूं कि वो बिल्कुल भी चलने फिरने की स्थिति में नहीं हैं... नशे में सराबोर हैं... न तो मेरी तरफ ध्यान दे रहे हैं और न ही बातचीत कर रहे हैं... फिर मैं उनको उठाकर अपने कमरे में ले आया। यहां उन्हें ठीक करने की भरपूर कोशिश की... लेकिन वो पूरी तरह नशे में डूबे थे... अब मैंने उनके शराब पीने पर पूरी तरह से पाबंदी लगा दी थी... लेकिन उनका नशा उतरने का नाम ही नहीं ले रहा था... उन्होंने खुद लिखा भी"पांचवें दिन भी पिया जिसको, बिना कुछ खाएऔर सुध अपनी गंवाकर मैं गिरा तब भी था"जब मैं हर तरफ से थक हार गया तो फिर मेहा भाभी को दिल्ली फोन किया... और सिर्फ यही कहा कि भाभी अगर आप चाहते हैं कि आपका शैलेंद्र सही सलामत रहें तो आप तुरंत मुंबई आ जाइये... भाभी आस्था और आदि को लेकर दिल्ली से निकल पड़ीं... और रास्ते भर मुझसे शैलेंद्र जी का हालचाल लेती रहीं... कुछ यही वाकया 18 मई की रात को हुआ ... जब मुझे पता चला कि शैलेंद्र जी का एक्सीडेंट हो गया है तो मैंने रात के साढ़े तीन बजे भाभी को फोन कर पूछा कि शैलेंद्र भैया कहां हैं... तो उन्होंने बताया कि घर से बाहर हैं... आखिरी बार ढाई बजे रात बात हुई है और वो रास्ता भटक गए हैं.... ये सब सुनने के बाद मैंने भाभी को बताया कि उनका एक्सिडेंट हो गया है........ शैलेंद्र जी पिछले सात साल में तीन बार हॉस्पीटल में भर्ती हुए और तीनों ही बार इसकी जानकारी मैंने ही भाभी को दी... हर बार भाभी पूछती रहीं कि शैलेंद्र ठीक तो हैं न... तो मैंने बार बार यही कहा कि आप चिंता मत कीजिए... मैं हूं न... लेकिन इस बार मैं ऐसा न कह सका.... बस यही कहा कि भाभी वो ठीक हैं... लेकिन आप जब हॉस्पीटल पहुंच जाएं तो बताइयेगा कि कैसी हालत है...
शैलेंद्र जी की शख्सियत एक भरा पूरा व्यक्तित्व है... जिसके कई आयाम हैं.... वो कभी अलविदा नही कह सकते .... कभी गुनगुनाते हुए सामने आ जाते हैं... कभी मजाक करते नजर आते हैं ... तो कभी गुस्सा होते हुए। मुझे याद आता है कि हमें साथ साथ रहते कई साल गुजर गए... लेकिन कभी पता नहीं चला कि उन्हें ढोलक भी बजाना आता है... एक बार मेहा भाभी दोनों बच्चों के साथ मुंबई आई हुईं थीं... तो हर बार की तरह मेरा रात का खाना वहीं बना हुआ था,,, हम डिनर के लिए पहुंचे... रात में खाने पीने के बाद गाने बजाने का दौर शुरू हुआ... सबसे पहले मैंने उनकी लिखी एक गजल गाकर सुनाई... उसके बाद उन्होंने हम सबको ढोलक बजाकर सुनाना शुरू कर दिया... मैं हैरान रह गया कि उन्होंने अलग अलग रागों में तकरीबन एक घंटे तक ढोलक बजाया... वो भी थाली और लकड़ी के पट्टे में... मैं दंग था क्योंकि अब तक उनके इस हुनर से अपरिचित था... उन्होंने सही लिखा है
"कौन कैसा है, क्या है, क्यूंकर हैआप सोचे नहीं तो बेहतर है"
वाकई शैलेंद्र जी के व्यक्तित्व को समझना आसान नहीं... मैंने उनके साथ लंबा अर्सा गुजारा... मेरी शादी में जब इनका पूरा परिवार शरीक हुआ तो ये संबंध और भी प्रगाढ़ हुआ... इसके बावजूद मैं ये तो जानता हूं कि शैलेंद्र जी के व्यक्तित्व का दायरा कितना बडा़ था ... लेकिन ये अब भी नहीं जानता कि उस व्यक्तित्व में क्या कुछ समाया हुआ है... कभी वो गीता पर बोलने लगते... तो कभी गालिब से लेकर निदा फाजली के शेर गुनगुनाने लगते.... कभी टेलीविजन में स्क्रिप्ट की जादूगरी पर बात करने लगते... तो कभी कभी ढोलक बजाते बजाते पूरी रात काट देते... इसके अलावा भी उनके व्यक्तित्व के कई ऐसे सिरे हैं.... जिसे मैंने छुआ तो जरूर लेकिन कभी पकड़ नहीं पाया...
एक दिन शैलेंद्र जी को फिल्म देखने का मूड हुआ... मेरी बाइक से दोनों मराठा मंदिर पहुंचे और वहां किसी फिल्म ( नाम नहीं याद है) की टिकट खरीदी... टिकट खरीदने के बाद इनके मूड में आया कि कहीं शराब पी जाए। फिल्म शुरू हो चुकी थी, लेकिन हम दोनों पहुंच गए मरीन ड्राइव्स में एक रेस्टोरेंट ... वहां शराब पी... जब उठकर जाने लगे... तो इन्होंने वेटर को पांच सौ रुपये थमा दिए... इसके बाद जब पार्किंग से अपनी बाइक लेकर जाने लगे... तो वहां खड़ा शख्स मुझसे पार्किंग चार्ज 10 की बजाए 15 रुपये मांगने लगा... जब मैंने उसे डांटा तो वो आदमी रोने गाने लगा कि गरीब हूं... 15 रुपये ही दे दीजिए। मैं पैसे देता... इससे पहले ही शैलेंद्र जी ने 500 रुपये का नोट थमा दिया और हम लोग चल पड़े। मराठा मंदिर पहुंचे तो लगभग 1 घंटे की फिल्म खत्म हो चुकी थी। इसके बाद इंटरवल तक फिल्म देखी... और फिर उनका मूड पीने का हुआ। और हम लोग लोअर परेल के अपने घर पहुंच गए। आज मुझे उनकी लिखी एक शेर याद आती है...
"इन गलियों से सब लोग गुजर जाते हैं जैसेऐसे ही भला मैं भी गुजर क्यूं नहीं जाता"
वाकई जिन गलियों से तमाम लोग यूं ही गुजर गए... उन गलियों में शैलेंद्र खुद को कभी सहज नहीं रख पाए... बल्कि हर वक्त उनकी आंखों में एक दूसरी ही दुनिया विद्यमान रहती थी... उस दुनिया में बहुत कुछ था। लेकिन आप ये न समझ लें कि ये शराब की मदहोशी में डूबी हुई दुनिया थी, बल्कि शराब तो बहाना थी... न तो उन गजलों को लिखने से पहले उन्होंने उस शिद्दत से शराब पीयी... और न ही किताब लिखने के बाद उन्होंने शराब की दुनिया में कभी गोते लगाए। बल्कि मेरे जैसा आदमी जो कभी कभार एकाध पैग ले लेता था... तो वो हमेशा मना करते... लेकिन मैं गवाह हूं उनकी उस किताब का... जो एक मुकम्मल जिंदगी है...
"घड़ी दर घड़ी खुद में उलझा रहाखिलौनों की मानिन्द बिखरा रहान जाने क्यों इतनी बेचैनी लिएगली-दर-गली मैं भटकता रहा"
शैलेंद्र का कैनवास बहुत बड़ा है। भाषा की कलात्कता से लेकर साहित्य का तड़का लगाने तक हर फ्लेवर उनके अंदर मौजूद हैं। उनसे दोस्ती का आधार था मेरी गजल की किताब। जब उन्हें स्टार न्यूज में काम करने के दौरान पता चला कि मैंने गजलों पर एक किताब लिखी है... और उसका विमोचन मुंबई में ही हुआ है... तो उन्होंने मुझसे वो किताब मांगी। और फिर बताया कि वो भी गजलों पर एक किताब लिखने की योजना बना रहे हैं। आप ये जानकर हैरान रह जाएंगे कि जब इनकी किताब "कुछ छूट गया है" के विमोचन के लिए दिल्ली आया तो यहां पर एक रात निदा फाजली, साहित्यकार बोधिसत्व और हमारी महफिल जमी। इस महफिल में रात भर का मुद्दा सिर्फ और सिर्फ शैलेंद्र थे। खुद निदा फाजली ने इनके व्यक्तित्व पर इतना कुछ कहा... जो किसी के लिए भी गर्व की बात हो सकती है। आज बिल्कुल भी यकीन नहीं होता कि शैलेंद्र हम सबको छोड़कर कहीं चले गए हैं... और फिर कभी नहीं आएंगे... क्योंकि उन्होंने हमेशा छोड़कर जाने की धमकी दी है... वो जाते भी हैं... लेकिन जल्द ही लौट आते हैं... कभी एक दिन में, कभी हफ्तों में तो कभी महीनों में... "तेज दोपहरी में निकला जो मैं घर से उस दिनआज तक लौटके फिर घर नहीं देखा मैंनेजीस्त की राह में जिस मोड़ से आगे निकलाउसको भूले से भी मुड़कर नहीं देखा मैंने"लेकिन इस बार उनका इरादा नेक नहीं था... क्या पता था कि वो लंबी छलांग लगाने के इरादे से देर रात निकले हैं.... और फिर कभी नहीं लौटेंगे... क्या इसकी स्क्रिप्ट उन्होंने पहले से लिख ली थी... वर्ना वो ऐसा क्यों कहते कि
"इक परिंदा चला आसमां नापनेरास्ते में ही दम तोड़कर गिर गया"
लेकिन मेरा भरोसा दूसरा है... शैलेंद्र इतने बेरुखे नहीं हो सकते... कैसे वो मेहा भाभी, आस्था और महज 6 साल के आदि को छोड़ सकते हैं... क्या वो फिर लौटेंगे... क्या वो फिर आकर उन्हें गोद में लेंगे... क्या एक बार फिर वो आदि का मुझसे परिचय करवाएंगे कि तुम्हारा हरीश दोस्त आ गया... दुनिया कुछ भी कहे, लेकिन मुझे पूरा भरोसा है... क्योंकि उन्होंने एक दो बार नहीं... कम से कम सैकड़ों बार पूरे परिवार के सामने इस नज्म को गुनगुनाकर सुनाया है...
"इक बार तेरी राह में आऊंगा मैं जरूरकुछ है मेरा जो पास तेरे छूट गया है"
शैलेंद्र खुद भी इस दुनिया को छोड़कर कहां जाना चाहते थे... बल्कि एक्सपेरिमेंट करना चाहते थे... उन्हें गीता का हिन्दी अनुवाद पूरा करना था... गजलों की एक नई किताब पूरी हो चुकी थी... नज्म की एक किताब मुकम्मल थी... सिर्फ प्रकाशित करवाना था... फिर आखिर कहां चले गए
"हर दिशा में दिशाविहीनपसरती जाती है वायु...लेकिन एक भ्रमकि बाकी है आयुअभी और जीना है!!!"
हां एक बात और शैलेंद्र निराश नहीं थे, वो हारे हुए नहीं थे, असफल नहीं थे, वो शराबी भी नहीं थे... बल्कि वो जीतने वाले इंसान थे... उनमें अब भी जीजीविषा बाकी थी... उन्होंने बहुत कम उम्र में ऐसे मुकाम को हासिल किया, जो किसी के लिए भी ईर्ष्या पैदा कर सकती है। वर्ना उनमें ये लिखने का साहस कैसे पैदा होता
"होश आया तो मैं इक फैसला करके उठ्ठाऔर बाजार में जा खुद को उछाला मैंनेअपने वो दाम वसूले कि सब हुए हैरांखुद को दौलत की इवज बेच ही डाला मैंनेबाद उस रोज के हर रोज मैं बिकता हूं मगरअपनी कीमत पे मैं हर वक्त नजर रखता हूंकौन क्या दाम चुका सकता हैं मेरे मुझकोकौन कितना है खरीदार, खबर रखता हूंआज हर चीज जहां की है मयस्सर मुझकोआज पहले की तरह जिंदगी बेहाल नहींलाख नश्शा है मगर इतनी खबर है मुझकोआज दुनिया है मेरी, अब मैं फटेहाल नहींअब है मालूम कहां, कैसे निकलता है ये दिनरात छलकाती है मस्ती से भरे जाम कहांसुब्ह किस दर पे दिया करती है पहली दस्तकशाम हर रोज मचलती है सरे-आम कहां"
अब आप खुद सोचिए किसी इंसान में इतना कुछ लिखने की हिम्मत यूं ही नहीं आती... वो इंसान जिसने बचपन में ही अपने मां बाप को खो दिया, वो इंसान जिसने बहुत ही गरीबी में अपने बचपन गुजारे, वो मासूम बच्चा जो भूख से बिलखता हुआ कई दिन बिना खाए पिए सो गया... और एक बार गली में फेंके हुए खाने को पाने के लिए कुत्तों से लड़ पड़ा, वो इंसान जिसने कई बार राह चलते गरीबों को रोजगार के लिए दसियों हजार रुपये थमा दिए... आज भी वैशाली में कई रिक्शा वाला उनके नाम को लेकर अपनी रोजी रोटी चला रहा है...
एक बहुत बडी़ हकीकत ये है कि शैलेंद्र ने कभी भी समझौता नहीं किया... अपने उसूलों से, अपने सिद्धांतों से... उन्होंने जितना इस जग से लिया, उतना उसे वापस लौटा दिया... और ये सब करने वाला इंसान हमेशा एक चीज की कमी महसूस करता रहा... उसे वो चीज कभी नसीब नहीं हो पाई... वो मां की कमी को हमेशा महसूस करता रहा... अपनी मर्मस्पर्शी कविता मां में वो लिखते हैं... "मां! अगर तुम होती मेरी तन्हाईमैं हमेशा ही तुम्हारी गोद में सर रखकर सोतातुम दुलारती मुझे, सुनाती जली कटीऔर जन्मों से निरंतर जगते चले आ रहेतुम्हारे इस शापित बेटे को दो चार पलों कीनींद हो जाती मयस्सर"शैलेंद्र न सिर्फ एक बेहतरीन पत्रकार थे, बल्कि नेक इंसान भी थे... कभी कभी लोगों के साथ उनके मतभेद जरूर होते थे, लेकिन उन्हें अपना बनाने की हुनर भी पता थी। मैं तो उन्हें यही कहना चाहूंगा कि शैलेंद्र आप हमेशा अपनी लेखनी के जरिये... हम सब की यादों में जिंदा रहेंगे... चलते चलते आपको उनकी लिखी आखिरी गजल भी सुनाना चाहूंगा... जो उन्होंने अपनी मौत से ठीक एक हफ्ते पहले सुनाई थी...इसमें उन्होंने जिंदगी को अलविदा कहने की बात भी कही थी
"सालों तक रोया कि मेरे साथ है धोखा हुआध्यान से देखा तो पाया कुछ नहीं ऐसा हुआदर्द की एक बूंद थी, कतरा बनी और बह गईदिल ने खामोख्वाह समझा जख्म फिर गहरा हुआरात को कोपल से पैदा हो रही थी रोशनीरात गहरी थी, न समझा इस कदर ये क्या हुआबस महज इक बात थी भारी पड़ी संबंध पररिश्तों के जंगल में तबसे हूं यूं ही भटका हुआजिंदगी बाहों में भरकर अलविदा तो कह गईवो मुसाफिर अब तक है मोड़ पर बैठा हुआ"अलविदा शैलेंद्र..... अलविदा....
हरीश चंद्र बर्णवाल एसोसिएट एक्जक्यूटिव प्रोड्यूसर, IBN7hcburnwal@gmail.com9810570862
रविवार, 28 जून 2009
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