शुक्रवार, 21 दिसंबर 2012

कहानी - काश मेरे साथ भी बलात्कार होता!


लेखक – हरीश चंद्र बर्णवाल

कहानी -   

              काश मेरे साथ भी बलात्कार होता!

 

 

अच्छा हुआ। हां, अच्छा हुआ कि मेरा बलात्कार हुआ। सब ऐसा ही कहते हैं। अब सब मुझको मानते भी हैं। मेरा सबसे अच्छा दोस्त अमित भी तो ऐसा ही कहता है। मोनू, रवि, श्वेता, चंचल, आशीष सब अमित के साथ मेरे घर आए हैं। ये सब मुझे पहले खेलने तक नहीं देते थे। मुझे चिढ़ाते थे। लेकिन अब मैं उन्हें चिढ़ाऊंगी। खूब आनंद करूंगी। अब सभी मुझे प्यार करते हैं। टॉफी भी खूब लाकर देते हैं। अगर बलात्कार न होता तो स्कूल भी जाना पड़ता। होमवर्क तो किए नहीं थे। मार भी खानी पड़ती। साथ ही सर कान पकड़कर मेज़ पर खड़ा कर देते। अब कुछ दिन स्कूल नहीं जाना पड़ेगा। मम्मी ही तो कह रही थी कि पंद्रह-बीस दिनों तक स्कूल नहीं जाने देंगे क्योंकि अभी वहां मेरी ही चर्चा चल रही होगी। पंद्रह-बीस दिनों में मामला ठंडा पड़ जाएगा। पापा भी तो मान गए हैं, और...।

      अन्तर्मन में खोयी छठी कक्षा की ग्यारह वर्षीय प्रिया अपने मन को टटोल रही थी या शायद अपने अस्तित्व को ढूंढने का प्रयास कर ही थी। बीच में ही टोकते हुए उसकी कक्षा का रवि कहता है

प्रिया, तुम हमसे बात क्यों नहीं करती?”

हम भी तो इससे बात नहीं करते थे।बीच में मासूमियत से अमित कहता है।

            अमित की बात सुनकर प्रिया की एकाग्रता टूट जाती है। बहाने से बनाकर कहती है मैं स्कूल के बारे में सोच रही थी। नहीं जाऊंगी तो सर डांटेंगे, है न! ”

हां, पूरे स्कूल में सब सर और मैडम तुम्हारी ही बात कर रहे थे।आशीष शुष्क भाव से बोलता है।

अरे! नहीं बुद्धू सर इसलिए थोड़ी न चर्चा कर रहे थे। वो तो इसके बलात्कार पर बात कर रहे थे। अंजुम मैडम तो कह रही थीं कि प्रिया अभी कुछ दिन स्कूल नहीं आयेगी। इसलिए हम लोगों से इससे मिलने को भी कहा।  श्वेता आशीष की बातों को काटती है।

हां, वो तो है।आशीष भी सिर हिलाकर स्वीकृति देता है।

सच में!” प्रिया आश्चर्य से बोल पड़ती है।

                    स्वतःप्रेरित यह स्वीकारोक्ति प्रिया में आत्मसंतोष पैदा करती है। वैसे बचपन का यह उतावलापन है, जो बच्चों में एक-दूसरे के साथ प्रतिस्पर्धा उत्पन्न करता है। इस उम्र में बच्चे वृक्ष की प्रत्येक टहनी को छूने के लिए अपनी पूरी शक्ति लगा देते हैं। बच्चों के समाज में सबसे अलग प्रिया में जरूर कुछ ऐसा गुण रहा होगा जो उसे एक व्यक्तित्व बनाता है। एक ऐसा व्यक्तित्व जो अपने आप में पूर्ण है, अनोखा है, किन्तु पहचान के अभाव में संपूर्ण नहीं है। आज पूरी बालमंडली के सामने प्रिया नये रूप में है क्योंकि उसका बलात्कार हुआ है। वह स्कूल में, अखबार में तथा पूरे माहौल में छायी हुई है।

                               बच्चों में एक दूसरे से जलने की प्रवृत्ति होती है, जिसके आगे ज्वालामुखी के लावे भी कमजोर हैं, किन्तु बच्चों की जलन का कोई सार नहीं। वह कभी पल भर में आसमान से उच्चमंडल को छू सकता है तो सागर की गहराइयों तक भी जा सकता है। यह एक आग का दरिया है जहां सब कुछ जलता दिख रहा है, मगर कुछ जलता नहीं। क्षोभमंडल में होने वाले परिवर्तन की तरह यह क्षणिक है, किन्तु हर कोई इस क्षण को जीना चाहता है, क्योंकि यह क्षण भी अनंत तक फैला है।

                       प्रिया गदगद है, क्योंकि वह धुरी बनी हुई है जिससे आसपास का सारा वातावरण उसी के इर्द-गिर्द घूम रहा है। खासकर अपने दोस्तों के सामने चर्चा का विषय बनना कम बड़ी बात नहीं है। वो भी ऐसा विषय जिसमें सबकी उत्सुकता दौड़ रही है। सबका मन यह जानने का प्रयास कर रहा है कि क्यों प्रिया आज सबसे

ज्यादा प्यार पा रही है? बलात्कार क्या है? प्रिया के साथ ही क्यों हुआ? मेरे साथ क्यों नहीं? तरह-तरह के ऐसे सवाल जिन पर किसी का वश नहीं... यही तो बचपना है, जहां से आश्चर्य के तीर छूटते जाते हैं। निश्चित ही वह किसी छाया को भेदते हैं, किन्तु वह छाया अवश्य ही प्रत्यास्था के गुणों से प्रेरित है जो बार-बार भेदित होने पर भी पुनः वैसी ही स्थिति में आ जाती है।

                  अपने वर्चस्व को कायम रखने के लिए प्रिया अपने दोस्तों को कहती है कल मेरे मामाजी आए थे। वे मेरे लिए फुटबॉल भी लाए, जिससे मैं अब खूब खेलूंगी।

अच्छा!” सबने एक साथ आह भरी।

वो भी तीन रंगों वाला। लाल, हरा और नीला।प्रिया ने जोर देकर कहा।

                                दरअसल प्रिया अपने दोस्तों के मन को टटोलने का प्रयास कर रही थी। शायद मित्रों की उत्सुक निगाहों को वह भांप चुकी थी। इसलिए तो अपनी जीत को पुख्ता करने के लिए वह रंगों का भी सहारा लेती है। सच भी था, बालमंडली पिछड़ रही थी। किन्तु बच्चों के अपने तर्क होते हैं, जिनका दोहरा चरित्र नहीं होता, साथ ही असीम होते हैं। पूरी बालमंडली को चुप देख मोनू साहस बटोर कर कहता है

हमारे पास भी तो फुटबॉल है।

लेकिन तीन रंगों वाला तो नहीं?” प्रिया ने तुरंत कहा।

तो क्या हुआ? हमें तो खेलने से मतलब है।   

                                                     रवि मोनू के समर्थन में कहता है। अब प्रिया की दाल नहीं गल रही थी। फिर भी थोड़ी देर तक सोचने के बाद बोल पड़ी

ठीक है, लेकिन तुम्हारी फुटबॉल तो पुरानी हो चुकी। अब तो ज्यादा उछलती भी नहीं। साथ ही पैरों में चोट भी लगती है।प्रिया ने ईंट का जवाब पत्थर से दिया।

                     अब किसी को भी कोई उत्तर न सूझा। अंततः बालमंडली प्रिया की बात को स्वीकार करते हुए अपना पराजय भी स्वाकीर कर लेती है। द्वन्द्व का यह रूप वस्तुतः ईर्ष्या है जो बचपन में स्वार्थ की प्रवृत्ति के सूक्ष्मतम रूप में दिखाई पड़ता है। यह एक मानसिकता है... पवित्र मानसिकता, जहां स्वार्थ का अपना स्थान होता है। ऐसा स्वार्थ जो मानव में बचपन से अपना रूप बदलता हुआ जवानी में स्पर्धा तथा बुढ़ापे में संतोष का रूप ले लेता है। तीनों रूपों में क्रिया-प्रतिक्रिया का संबंध घनिष्ठ होता है क्योंकि भय ही आस्था होती है जो ईर्ष्या में अलगाव की, स्पर्धा में पिछड़ने की तथा संतोष में सामंजस्य की होती है। स्वाभाविक है इसकी प्रतिक्रिया में एक भय यह भी था

 

तुम मुझे तो खेलने नहीं दोगी?” मोनू सहज भाव से कहता है क्योंकि वह सोचता है कि उसके साथ यह होगा या होना चाहिए। दरअसल मानव का प्रत्येक रूप में यह गुण है कि वह विषम परिस्थियों में अपने साथ ठीक उसी प्रकार के सुलूक की आशा करता है जैसा उसने दूसरे के साथ उसी परिस्थिति में किया है। यह मानव का उच्चतम गुण है। जो मनुष्य इसे जिस अवस्था में जान लेगा, उसी समय संपूर्ण हो जाएगा।

                                 प्रिया सोचती है कि सारी मंडली तो पराजित हो गई। अब वह उन सबों को खूब चिढ़ाएगी। खासकर मोनू को, क्योंकि फुटबॉल तो उसी के पास है तथा वही मुझे खेलने नहीं देता था, किन्तु तभी प्रिया के मन में दया की भावना जाग उठती है। सच ही है कि विजय का एक रूप सहानुभूति भी होता है। प्रिया कहती है

 

क्यों नहीं? हम सब मिलकर खेलेंगे।प्रिया सोचती हुई दार्शनिक अंदाज में कहती है मानों वह अन्य बालकों की तरह तुच्छ मानसिकता नहीं रखती।

लेकिन हम लोग तो तुम्हें खेलने नहीं देते थे?” मोनू आश्चर्य से कहता है।

कोई बात नहीं।प्रिया बोल पड़ती है।

                       शायद ये नारी चरित्र का समन्वित चेहरा है जिसमें अधिकारपूर्ण सामंजस्य का समावेश है, तभी तो प्रिया मोनू के खेलने को भी स्वीकार कर लेती है। साथ ही वह दोस्तों को फुटबॉल दिखाने के लिए उठती है। तभी उठने के प्रयास में वह नीचे गिर पड़ती है और उसके मुंह से आह निकलता है।

                   उसे उठाने के लिए मोनू, अमित और श्वेता आगे बढ़ते हैं कि तभी मम्मी आ जाती है और प्रिया को देखकर अरे! क्या हुआ, चोट तो नहीं लगी?”

कुछ नहीं मम्मी, फुटबॉल लेनी थी।प्रिया संभलती हुई मम्मी को देखकर कहती है।

तो मुझे कह देती। डॉक्टर ने तुम्हें आराम करने को कहा है, न!”

                                     प्रिया अपने दोस्तों तथा मम्मी के सहारे उठती है। मम्मी फुटबॉल देकर चली जाती है। प्रिया फुटबॉल दिखाती है पर मोनू उसे अपने हाथ में ले लेता है और उसी में तल्लीन हो जाता है क्योंकि मोनू का क्षणिक स्वार्थ पूरा होता है, किन्तु फिर एक जिज्ञासा। अमित पूछता है

प्रिया तुम्हें डॉक्टर ने आराम करने को क्यों कहा है?”

मेरा बलात्कार हुआ है न!” प्रिया तुरंत जवाब देती है। एक पूर्वनिर्धारित जवाब जो आने वाले हर प्रश्न का उत्तर हो, किन्तु हर उत्तर के साथ सौ प्रश्न भी होते हैं और अब तो सब्र भी नहीं।

बलात्कार क्या होता है?” – अमित ने पूछा।

                                         एक गहरी जिज्ञासा मानो सारा राज़ खोलकर जीवन की प्रत्येक गुत्थियों को सुलझा लेना चाहता हो।

बलात्कार तुम्हें नहीं मालूम?” श्वेता ने बीच में ही टोका।

नहीं?” सबने एक साथ कहा।

 तुमलोगों को पता नहीं, स्कूल में रजत सर ने किरण मिस का बलात्कार किया था। मैं भी वहीं थी क्योंकि मिस से मैं अपनी होमवर्क की कॉपी चेक करवाकर लौट रही थी। तभी रजत सर मिस के कमरे में दाखिल हुए। कुछ देर बाद अंदर से मिस की ज़ोर से आवाज़ आयी। सब सर और मैडम वहां दौड़ पड़े। मैंने देखा, सर किरण मिस को कसके पकड़े हुए थे। बाद में सर को पुलिस पकड़कर ले गई।

अच्छा!” सबने एक साथ कहा।

फिर एक जिज्ञासा जिसमें अनंत जिज्ञासा तो सर प्रिया के घर भी आये थे,प्रिया को देखकर आशीष पूछता है,तुम्हें भी कसके पकड़े थे क्या?”

नहीं, सर नहीं आये थे हमारे घर।

                                                       एक छुपा हुआ रहस्य। आखिर कुछ अलग है यह बलात्कार, तभी तो प्रिया फिर से अपने को अलग महसूस करती है उस मंडली से, जहां सभी अनभिज्ञ हैं। केवल प्रिया सब कुछ जानती है।

तब बलात्कार कैसे हुआ?” अमित पूछता है।

मोनू अभी तक फुटबॉल से ही खेल रहा था। किन्तु स्वार्थ का रूप ऐसा है कि नज़र सबकी रहे किन्तु अधिकार किसी एक का। इसमें अगर किसी की नज़र नहीं तो अधिकार की भावना शिथिल पड़ जाती है। फुटबॉल पर चूंकि किसी की नज़र नहीं थी तो मोनू का स्वार्थ भी बदल जाता है। सब प्रिया को ध्यानपूर्वक सुन रहे थे। मोनू भी उसी में अपना स्वार्थ ढूंढने का प्रयास करता है। प्रिया कहती है

मेरा बलात्कार बगल वाले रमण अंकल ने किया।

                                          मोनू की जिज्ञासा अब शुरू हो जाती है और कैसे-क्या का सिलसिला शुरू हो जाता है।

                                   एक ऐसा प्रारंभ जहां से सारे भेद खुल जाएंगे। प्रत्येक प्रश्न अपने आप में कल्पना है, आकाश है और सृष्टि तक पहुंचने की एक राह है। सच तो यह है कि सृष्टि की रचना करने वाले ईश्वर ने बच्चों के रूप में एक नये ईश्वर की रचना की है जिसमें सृजन की अपार संभावनाएं हैं, जिसका अपना संसार होता है... जहां कुछ भी अर्थ-अनर्थ नहीं, सत्य-झूठ नहीं, शाश्वत नहीं... स्वीकार हो सकता है। वह इसलिए कि तर्क-कुतर्क के सारे मार्ग खुले होते हैं। प्रिया क्रमशः बोलती चली जाती है -

परसों मेरे मां-पापा नानी के घर गए थे, एक दिन के लिए। मुझे नहीं ले गए।अब प्रिया की आवाज़ भारी होने लगती है। फिर भी वह बोलती है

स्कूल से आने के बाद जब मैं घर आई तो रमण अंकल ने बताया था। मुझे वे अपने घर ले गये। वे बोल रहे थे कि मैं बहुत जिद्दी हूं न! इसलिए बिना बताये मां-पापा हमें छोड़कर एक दिन के लए नानी के घर गये हैं।

                                                 बीच में दोस्तों ने मत व्यक्त करने चाहे या नई प्रकार की जिज्ञासा प्रकट करनी चाही। किन्तु संभवतः प्रिया इन प्रश्नों से भिज्ञ थी। अतः धाराप्रवाह बोलती गई

स्कूल से आने के बाद मैं बहुत रोई। तब अंकल मुझे पार्क ले गये। वहां मुझको घुमाये। आइसक्रीम खिलाई। फिर रात को चॉकलेट भी दिये।

                                तभी प्रिया की मम्मी कमरे के अंदर प्रवेश करती है। सभी सतर्क हो जाते हैं, मानों कोई चोरी पकड़ी गई हो या फिर ऐसा भेद खोला जा रहा है जिसे प्रिया की मम्मी को नहीं बताना है। मम्मी प्रिया को दवा खिलाती है और उसके दर्द के बारे में पूछती है। प्रिया इस प्रकार सिर हिलाकर उत्तर देती है कि उसकी मम्मी के साथ-साथ शायद वह भी न समझ पाई हो। परंतु मम्मी के चले जाने के बाद -

क्या रमण अंकल ने तुम्हें जोर से पकड़ा था, जो अभी भी दर्द है?” श्वेता ने पूछा।

अरे बुद्धू, मेरा बलात्कार दूसरा है, सर वाला नहीं।

अच्छा!”  श्वेता ने जिज्ञासा प्रकट की।

                     परंतु इसके बाद प्रिया कुछ बोली नहीं। वातावरण बिल्कुल शांत पड़ गया। नीरवता ने पल भर में ही चढ़ते उफान को धूमिल कर दिया। प्रिया की शुष्क आवाज अब घरघराने भी लगी। बच्चे शायद देर तक किसी विजय को सुरक्षित नहीं रख पाते। प्रिया के साथ भी कुछ ऐसा ही था। खासकर जब प्रिया को यह भी पता नहीं कि उसकी जीत का मर्म क्या है। वो तो बस उसे टटोलने का ही प्रयास कर रही है कि उसके बलात्कार होने से क्या हुआ है? क्या होने वाला है और क्या हो सकता है? किन्तु बालमंडली इस आंतरिक मर्म को समझ पाने में असमर्थ थी। अतः मोनू दोबारा पूछता है

फिर क्या किया था अंकल ने?”

                                  प्रिया जो अचानक चुप होकर किसी सोच में डूब गई थी, मोनू के पूछने पर उसका ध्यान टूटता है और वह शुष्क भाव से बोलती है रात को तो अंकल ने मेरे कपड़े भी खोल दिए थे। मुझे पकड़ा था, साथ में सुलाया भी था। लेकिन उसके बाद... उसके बाद... बहुत जोरों का दर्द हुआ... और अब भी दुखता है...।

                         संवादहीनता की एक ऐसी स्थिति जो मां की प्रिया के साथ थी और अब प्रिया की बालमंडली के साथ है, जिसमें पूरा माहौल मूक दर्शक बना हुआ है। कुछ कहने को बचा है... परंतु क्या? वह खुद भी नहीं जानती। एक आशंका जो मन में है, बाहर भी है, किन्तु शब्द नहीं। शायद आह-कराह में ही सारे शब्द निकल जाते हैं। एक महासमर जो अंदर में चल रहा है किन्तु बाहर उसकी छाया कुछ और है। बच्चों की ऐसी मानसिक अराजकता ही उसे बच्चा बनाती है। परंतु क्या ये उसकी निर्बलता है? शायद नहीं! तभी तो प्रत्येक घटना का सुखद पहलू बच्चों का स्वार्थपरक दृष्टिकोण पल भर में बता सकता है।

               प्रत्येक सृष्टि एक संपूर्ण जीवन है और जीवन अंतर्द्वन्द्व से होकर गुजरता है। इस अन्तर्द्वन्द्व का प्रारंभिक क्षण इन बालकों के छोटे से सीमाहीन दिमाग में उथल-पुथल मचा रहा है।

                             फिर से स्वार्थ की नई कड़ी जुड़ती है। सब सोचते हैं कि इस बलात्कार ने प्रिया में बदलाव ला दिया है। सब उसे प्यार करते हैं, मानते हैं, फुटबॉल भी मिला, टॉफी भी देते हैं। स्कूल से भी छुट्टी है, मैडम भी याद करती हैं, अर्थात सब कुछ अच्छा हो रहा है...। इसलिए प्रिया भाग्यशाली है कि उसके साथ बलात्कार हुआ।

 

काश मेरे साथ भी बलात्कार होता!”

                                       एक आह जो सभी के मन से निकलती है क्योंकि इस बलात्कार से उन सबके जीने के ढंग में भी बदलाव आ जाएगा। बाद में बलात्कार के लिए सबमें सहमति हो जाती है।

मैं तो पापा-मम्मी के साथ ही सोता हूं। रात को मैं भी कपड़े खोलकर पापा को कसके पकड़ लूंगा, फिर मेरा भी बलात्कार हो जाएगा।मोनू ने कहा।

अरे पागल, बलात्कार पापा नहीं कर सकते न! वो तो रमण अंकल करेंगे।प्रिया कहती है।

रजत सर भी तो कर सकते हैं।श्वेता ने टोका।

हां, हां।सबकी सहमति होती है।

किन्तु ये दोनों तो जेल में हैं, अब क्या करें?”

तभी चंचल की सलाह से सबकी आंखों में चमक पैदा हो जाती है। चंचल कहता है -

मेरे चाचा थाने में पुलिस हैं। हम उनको बोलेंगे कि हमको रजत सर से कुछ पूछना है। फिर हम सब मिलकर रजत सर को बलात्कार करने के लिए कहेंगे। तब हमें भी सब प्यार करेंगे।

                                                  चंचल के प्रस्ताव पर सबकी सहमति हो जाती है और बालमंडली प्रिया के घर से इसी आशा में निकल पड़ती है।

 

(ये कहानी हरीश चंद्र बर्णवाल की तीसरी किताब और कहानी संग्रह सच कहता हूं में छपी है। ये किताब वाणी प्रकाशन से प्रकाशित हुई है)

 

 

लेखक से संपर्क करें – hcburnwal@gmail.com

 

COPYRIGHT @ HARISH CHANDRA BURNWAL

 

वाणी प्रकाशन से प्रकाशित सच कहता हूं – किताब में ये कहानी छपी हुई है

मंगलवार, 17 जुलाई 2012

प्रधानमंत्री जी कुछ तो कीजिए




लेखक हरीश चंद्र बर्णवाल


             प्रधानमंत्री जी कुछ तो कीजिए

देश इस समय एक विकट स्थिति से गुजर रहा हें। महंगाई आसमान छू रही है, पेट्रोल की कीमतों में दिन दुनी रात चौगुनी बढ़ोतरी हो रही है, हर तरफ घोटालों का राज है, एक बार फिर मंदी का डर सता रहा है, दुनिया भर की मल्टीनेशनल कंपनियां देश को आंखे तरेर रही हैं। इस देश का हर इंसान भगवान भरोसे है... क्योंकि उसे समझ में नहीं आ रहा कि आखिर इस देश का माय-बाप कौन है। लेकिन इस समय इससे भी बड़ा सवाल पैदा हो चुका है और वो है देश के प्रधानमंत्री के काम करने के तरीके को लेकर। एक साथ तीन ऐसी घटनाएं हुईं, जिसके बाद सीधे-सीधे प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह सीधे सवालों के घेरे में हैं।
                            विपक्ष ने तो हमेशा से प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह पर सवाल उठाया। आडवाणी ने तो पिछले लोकसभा चुनाव में ही उन्हें कमजोर प्रधानमंत्री करार दिया। हालांकि वो खुद ही मात खा गए। लेकिन इस बार प्रधानमंत्री पर हमला बोलने की शुरुआत की है टीम अन्ना ने। कमान संभाली खुद गांधीवादी अन्ना हजारे ने। अन्ना ने सीधे-सीधे कोल आवंटन में एक सरकारी रिपोर्ट को आधार बनाकर प्रधानमंत्री को कठघरे में खड़ा कर दिया। अन्ना के मुताबिक जिस समय कोयला मंत्रालय प्रधानमंत्री के अंतर्गत था, उस दौरान जिस तरह से कोयला ब्लॉकों को नीलामी की जगह बांटा गया, उससे देश को दो लाख करोड़ रुपये का नुकसान हुआ। इसके बाद दूसरा बड़ा हमला किया उद्योगपतियों ने। इंफोसिस के संस्थापक नारायण मूर्ति और विप्रो के अध्यक्ष अजीम प्रेमजी ने भी देश के नेतृत्व के खिलाफ ही नजरें टेढ़ी कीं। अजीम प्रेमजी ने कहा कि भारत में इस समय कोई नेता नहीं है और देश में कामकाज बिना नेता के चल रहा है। यही नहीं उन्होंने कहा कि अगर यही हाल बना रहा तो ये देश सालों पीछे चला जाएगा। गौरतलब है कि पिछले साल भी प्रेमजी ने कहा था कि सरकार में शामिल नेता निर्णय लेने में सक्षम नहीं हैं। इसके अलावा इन्फोसिस के प्रमुख रहे नारायण मूर्ति ने भी कह दिया कि सरकार की नीतियों के कारण देश की छवि गिरी है। उन्होंने कहा कि मनमोहन सिंह ने ही 1991 में आर्थिक उदारीकरण को लागू किया था, इसके बाद जब वो प्रधानमंत्री बने तो लोगों को बहुत उम्मीदें थीं, लेकिन वो उम्मीदों पर खरा नहीं उतर पाए।
                           प्रधानमंत्री पर तीसरा और सबसे बड़ा हमला हुआ सियासी तौर पर। पहली बार अपने ही सहयोगियों ने अप्रत्यक्ष रूप से मनमोहन सिंह की कार्यशैली पर सवाल खड़े कर दिए। इनकी नेतृत्व क्षमता पर दाग लगा दिया। राष्ट्रपति के नाम को लेकर दिल्ली में ममता बनर्जी और मुलायम सिंह यादव ने संयुक्त प्रेस कॉन्फ्रेंस कर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का नाम ही राष्ट्रपति के लिए आगे बढ़ा दिया। इसमें कोई दोमत नहीं कि संविधान के मुताबिक राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री के पद में बड़ा फर्क होता है। राष्ट्रपति एक रबर स्टांप के सिवा कुछ नहीं, लेकिन प्रधानमंत्री पर पूरे देश की जिम्मेदारी होती है। सही मायने में सरकार की अगुवाई और देश को विकास के राह पर ले जाने की जिम्मेदारी इन्हीं की होती है। ऐसे में मनमोहन का नाम राष्ट्रपति के लिए आगे बढ़ाने का क्या मतलब है? क्या सहयोगी दलों ने मनमोहन सिंह की नेतृत्व क्षमता से भरोसा खो दिया है? ऐसा पहली बार हुआ है कि मौजूदा प्रधानमंत्री का नाम ही राष्ट्रपति के लिए आगे बढ़ाया गया हो। वो भी यूपीए सरकार में सबसे बड़ी सहयोगी तृणमूल कांग्रेस की तरफ से। ममता और मुलायम के इस बयान को कांग्रेस इसलिए भी हल्के में नहीं ले सकती क्योंकि इनके समर्थन के बिना किसी भी सूरत में कांग्रेस यूपीए के तमाम सहयोगियों को जोड़कर भी बहुमत हासिल नहीं कर पाएगी। इसके बाद तो समाजवादी पार्टी के कद्दावर नेता आजम खान ने ये तक दिया कि राष्ट्रपति के लिए ऐसा शख्स चाहिए जो हमेशा चुप रहता हो। इसके लिए मनमोहन सिंह फिट हैं। मान भी लिया जाए कि कांग्रेस की सरकार मुलायम को सीबीआई का डर दिखाकर समर्थन हासिल कर ले, लेकिन ममता के समर्थन का क्या करेंगे। उन्हें तो किसी से डर नहीं है। साथ ही जिस तरह से प्रधानमंत्री को लेकर तमाम धड़ों से बयानबाजी हो रही है, उससे पूरी सरकार की विश्वसनीयता खतरे में है।
                      इन सवालों और हमलों के बीच अब सीधे प्रधानमंत्री के ऊपर आते हैं। इसमें कोई दोमत नहीं कि प्रधानमंत्री एक ईमानदार छवि की शख्सियत हैं। ये मुश्किल ही है कि उनके खिलाफ कोई दाग ढूंढ लाया जाए। कोयला आवंटन के मामले में भले ही अन्ना ने प्रधानमंत्री के खिलाफ आरोप लगाए हों, लेकिन खुद अन्ना मानते हैं कि हो सकता है कि इसमें प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को कोई फायदा नहीं हुआ हो। प्रधानमंत्री ने भी एक बयान देकर कहा कि अगर उनके खिलाफ भ्रष्टाचार का एक भी आरोप साबित हुआ तो वो सार्वजनिक जीवन से संन्यास ले लेंगे। लेकिन सवाल ये है कि आखिर उनकी जिम्मेदारी का पैमाना क्या है। क्या प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ये कहकर बच सकते हैं कि भ्रष्टाचार के इन मामलों में उनका कोई हाथ नहीं है, उन्होंने तो कुछ किया ही नहीं। कभी-कभी प्रधानमंत्री ये कहकर बचना चाहते हैं कि गठबंधन की भी अपनी मजबूरी होती है। इसके बाद न तो वो कुछ कहते हैं और न ही कुछ करते हैं। क्या हमें ऐसा ही प्रधानमंत्री चाहिए जो कोई न कोई मजबूरी बनाकर न कुछ कार्रवाई करे और न ही कुछ कहे? प्रधानमंत्री पर सियासी तौर पर इतना बड़ा हमला हुआ, उद्योगपतियों ने सवाल उठाए। लेकिन किसी भी मामले में प्रधानमंत्री ने 2-3 दिन गुजर जाने के बाद भी कुछ नहीं कहा। न सहयोगियों से बात की और न ही देश के उद्योपतियों को बुलाकर उनसे सवाल जवाब किया गया, ताकि उनकी परेशानी समझी जा सके। ऐसे में प्रधानमंत्री जी आपसे शिकायत ये नहीं कि आपने किसी घोटाले को अंजाम दिया बल्कि सबसे बड़ी शिकायत ये है कि आप कुछ करते क्यों नहीं। 2जी घोटाले से लेकर तथाकथित कोयला आवंटन घोटाले में आप क्यों सख्त मैसेज देने से चूकते रहे। महंगाई हो या विकास दर, आपने आगे बढ़कर कोई ठोस कदम क्यों नहीं उठाया। इस समय हर किसी की नजरें आप पर टिकी हैं, ऐसे में ये कहकर काम नहीं चलेगा कि आपने तो कुछ किया ही नहीं, बल्कि आपको कुछ न कुछ करना ही होगा।

सोमवार, 26 मार्च 2012

कैमरा सच नहीं बोलता

कैमरा सच नहीं बोलता
पांच राज्यों में हुए चुनाव में अगर कोई सबसे बड़ा हीरो बनकर उभरा है तो वो हैं मुलायम सिंह
यादव के बेटे अखिलेश यादव और अगर किसी को सबसे बड़ा झटका लगा है तो वो हैं राहुल
गांधी। लेकिन ये सब कुछ क्या अचानक एक दिन में हो गया? क्या अचानक किसी हवा के
झोंके की तरह अखिलेश लोगों के मन मस्तिष्क में छा गए? आखिर क्यों लोगों ने एकबारगी ये
भरोसा कर लिया कि अब अखिलेश उनकी कायाकल्प कर देंगे? जाहिर है ये अकस्मात नहीं था
कि 6 मार्च को चुनाव का रिजल्ट आया और अखिलेश विजेता की तरह हर तरफ छा गए या
फिर एक ही दिन में राहुल गांधी की हार हो गई। ये भी नहीं हो सकता कि अचानक उत्तर प्रदेश
की जनता को सपने में आभास हुआ हो कि अखिलेश यादव ही उनके सपने को पूरा कर सकते हैं
और लोगों ने उन्हें जिता दिया हो।
इसका मतलब है कि जमीनी स्तर पर उत्तर प्रदेश में ऐसा बहुत कुछ चल रहा था,
जिसका अंदाजा या तो टेलीविजन मीडिया को नहीं था या फिर टेलीविजन के पत्रकार समझना
या दिखाना ही नहीं चाहते थे। गौर से देखिए तो देश के सबसे बड़े सूबे में हो रहा चुनाव दो युवा
चेहरे के बीच की लडाई थी। एक तरफ कांग्रेस के युवराज यानी राहुल गांधी थे तो दूसरी तरफ
समाजवादी पार्टी के टीपू यानी अखिलेश यादव थे। अब अखिलेश की राहुल गांधी से तुलना तो
छोड़िए, बल्कि प्रियंका गांधी की जितनी कवरेज टेलीविजन मीडिया ने की है, उसका एक
फीसदी हिस्सा भी कैमरा अखिलेश को रिकॉर्ड नहीं कर पाया। प्रियंका गांधी ने एक बार फिर
चुनावी मौसम में प्रकट होकर अमेठी और रायबरेली में करीब दो हफ्ते तक लगातार चुनाव
प्रचार किया। इस दौरान टीवी न्यूज चैनलों ने न सिर्फ इनका लगातार कवरेज किया, बल्कि
इसके मायने भी निकाले जाते रहे कि कैसे प्रियंका एक समझदार राजनीतिज्ञ बन गई हैं? कैसे
इंदिरा के बाद प्रियंका लोगों के दिलो दिमाग में छा गई हैं? कैसे प्रियंका गांधी ने इस बार रैलियों
की जगह छोटे-छोटे जनसभा आयोजित कर चुनाव प्रचार का तरीका ही बदल दिया है? कई
बारगी तो ऐसा लगा कि मानो यूपी के 403 सीटों में हो रहे चुनाव में सिर्फ प्रियंका ही छा गई हों,
कहीं अखिलेश का नामोनिशान तक नहीं!!!
मतलब साफ है कि जो शख्स पिछले कई सालों से यूपी की जमीन पर इतनी मेहनत
कर रहा था, वो मीडिया की नजर में बेकार था। करीब दो हफ्ते का प्रियंका का चुनाव प्रचार भी
अखिलेश पर भारी पड़ रहा था। यही नहीं चुनाव और उसके पहले के कुछ सालों को जोड़ दें तो
राहुल गांधी को लेकर टीवी मीडिया ने जितनी कवरेज की होगी, उतना तो तमाम राजनीतिक
दलों की रैलियों को लेकर भी नहीं किया गया होगा। अब जब स्थिति साफ हो गई है तो राहुल
गांधी और अखिलेश यादव की तुलना करना बेहद जरूरी है। कैमरों की नजर से हर इंसान इस
बात को तो जानता है कि यूपी चुनाव में राहुल गांधी ने काफी मेहनत की है... लेकिन सवाल ये है
कि अखिलेश यादव ने कितनी मेहनत की? जरा तुलनात्मक आंकड़ों के जरिये इसे देखते हैं।
चुनाव को लेकर राहुल गांधी ने सिर्फ यूपी में 29,000 किलोमीटर की यात्रा की।
इसमें से 320 किलोमीटर रोड शो और बस से 60 किलोमीटर की यात्रा शामिल है, लेकिन
ज्यादातर यात्रा उड़न खटोले से रही। वहीं अखिलेश यादव ने कुल 32,000 किलोमीटर की यात्रा
की। इसमें 20,000 किलोमीटर हेलिकॉप्टर से सफर किया। जबकि 12,000 किलोमीटर तो
सिर्फ अपने क्रांति रथ को लेकर पूरे उत्तर प्रदेश में घूमे। यही नहीं 250 किलोमीटर तो वो सिर्फ
अपने चुनाव चिह्न साइकिल को लेकर अलग-अलग चुनाव क्षेत्रों तक पहुंचे। एक तरफ जहां
राहुल गांधी ने 280 जनसभाएं और रैलियां कीं, वहीं अखिलेश यादव ने 410 जनसभाओं में
शरीक होने के अलावा 700 रैलियों को भी संबोधित किया। कुल मिलाकर अगर राहुल गांधी ने
खुद को उत्तर प्रदेश तक ही सीमित रखा और जमकर मेहनत की तो अखिलेश यादव ने भी
कम मेहनत नहीं की। इस बात को यहां की जनता ने भी न सिर्फ महसूस किया बल्कि राहुल
गांधी से ज्यादा अखिलेश यादव पर भरोसा भी किया। लेकिन न्यूज चैनलों के कैमरों ने कभी
इसे नहीं देखा। ये कैमरे तो सिर्फ राहुल गांधी के पीछे ही भागते रहे। ऐसा दिखाते रहे कि इस बार
राहुल गांधी और प्रियंका गांधी के पीछे एक नई क्रांति होने वाली है। इसका मतलब ये भी है कि
इन कैमरों ने यूपी की जमीन में हो रही बदलाव की आहट को महसूस ही नहीं किया?
एक और आंकड़ा आपके सामने रखता हूं। सिर्फ अमेठी, रायबरेली और
सुल्तानपुर में प्रियंका और राहुल ने 300 जनसभाएं की। ये वो इलाका है जो शुरू से ही कांग्रेस
का गढ़ रहा है। यही नहीं प्रियंका गांधी ने खुद को इन्हीं इलाकों में सीमित रखा था। प्रियंका ही
नहीं उनका पूरा परिवार मसलन प्रियंका के पति रॉबर्ट वाड्रा, उनके दोनों बच्चे भी इस प्रचार में
साथ रहे। लेकिन नतीजा क्या रहा। रायबरेली की सभी पांच सीटें कांग्रेस हार गईं। आपको बता
दें कि यहां खुद कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी लोकसभा का चुनाव लड़ती हैं। अमेठी में 5 में से
तीन सीटों पर कांग्रेस पार्टी की हार हुई। यहां से खुद राहुल गांधी सांसद हैं। इसके अलावा
सुल्तानपुर की पांच सीटों में भी कांग्रेस हार गई। यानी एक तरफ अखिलेश यादव जहां-जहां
गए वहां उनका डंका बजा, लेकिन कांग्रेस युवराज अपने किले को भी बचाने में नाकाम साबित
हुए।
अब जरा एक और तस्वीर देखिए। उत्तर प्रदेश में दलितों के घर खाना
खाने और ठहरने की तस्वीर आपने टीवी न्यूज चैनलों में खूब देखी होगी। ब्रेकिंग न्यूज की
पट्टी पर हर वक्त चमकने वाली खबरों में अव्वल रहीं। लेकिन इन इलाकों में क्या हुआ???
2011 में राहुल गांधी लखनऊ के सरोजनी नगर में एक गरीब के घर ठहरे। इसी साल झांसी के
मौरानी पुर और हमीरपुर में भी अलग-अलग गरीबों के यहां ठहरे। लेकिन सभी तीन इलाकों की
सीटों पर कांग्रेस की बुरी हार हुई। इससे पहले 2009 में भी श्रावस्ती और अमेठी में वो गरीब
लोगों के यहां ठहरे। लेकिन यहां भी कांग्रेस को कोई फायदा नहीं हुआ। राहुल गांधी ने इन
वाकयों को भुनाने का कोई मौका नहीं छोड़ा, जबकि टीवी पत्रकारों ने भी इसका इतना बेहतरीन
कवरेज किया मानो राहुल गांधी इन्हीं के घर में ठहरे हों। लेकिन बकौल अखिलेश यादव ये सब
दिखावा था... क्योंकि वो दलित के घर ठहरते नहीं, बल्कि उनका खुद का रसोइया ही दलित है।
इसलिए उन्हें ये सब कहने या दिखाने की जरूरत नहीं पड़ती।
जरा सोचिए क्या टीवी या प्रिंट में कभी भी इस तरह से अखिलेश यादव की चर्चा
हुई? क्या कभी भी अखिलेश यादव की क्रांति रथ यात्रा को इतनी तवज्जो दी गई? क्या कभी
समाजवादी पार्टी के टीपू को लेकर प्रिंट या टीवी न्यूज चैनलों में खुद को चुनावी पंडित समझने
वाले टीवी पत्रकारों ने कोई गंभीर चर्चा की? अगर आप ध्यान दें तो एक बार चुनाव के दौरान
अखिलेश की बड़ी-बड़ी खबर जरूर चली। लेकिन वो उस समय जब उन्होंने मजाक में ये कहा
था कि माया सरकार में सुबह वाली दवा के
साथ-साथ शाम वाली दवा भी महंगी हो गई है। यानी शराब पर उनके मजाकिया लहजे में की
गई टिप्पणी को ही मसालेदार तरीके से पेश किया गया। लेकिन समझने वाले ये जानते हैं कि
अखिलेश ने इस मजाक में भी एक गंभीर मुद्दा उठाया था।
जिस खबर पर आज चुनावी रिजल्ट आने के बाद मीडिया में चर्चा हो रही है। ये
बदलाव सालों से समाजवादी पार्टी में हो रहा था। इस बदलाव का सपना भी अखिलेश आम लोगों
के बीच दिखाने की कोशिश कर रहे थे। लेकिन क्या कभी भी मीडिया ने इसे लोगों के बीच पेश
करने की कोशिश की? कभी समाजवादी पार्टी परंपरावादी पार्टी जरूर रही हो, अंग्रेजी और
कंप्यूटर विरोधी भले ही इसकी पहचान रही हो। लेकिन हकीकत ये है कि सालों पहले अखिलेश
ने इस पहचान को ध्वस्त कर दिया। हर वक्त अपने साथ आईफोन, ब्लैक बेरी और आई पैड
रखने वाले अखिलेश ने अपने चुनावी मेनिफेस्टो के जरिये भी अपनी सोच उजागर कर दी।
मैसूर से सिविल इंजीनियरिंग और ऑस्ट्रेलिया से पर्यावरण इंजीनियरिंग की पढ़ाई करने वाले
अखिलेश में कभी किसी बात की अकड़ पैदा नहीं हुई। फर्राटेदार अंग्रेजी बोलने वाले अखिलेश
को कभी भी मीडिया के सामने भी लोगों ने अंग्रेजी बोलते नहीं सुना होगा। पर हकीकत ये है कि
अखिलेश ने कभी भी अंग्रेजी या कंप्यूटर का विरोध नहीं किया। जाहिर है अखिलेश यादव ने न
सिर्फ खुद को बदला बल्कि समाजवादी पार्टी को भी बदल दिया। ये बदलाव उन्होंने जमीनी
स्तर पर भी किया... आम लोगों के बीच इसका भरोसा बहाल करने में भी कामयाब रहे। लेकिन
मीडिया ने न तो इसे महसूस किया और न ही जो जमीनी स्तर पर हो रहा था, उसे तवज्जो दी।
ऐसे में सबसे बड़ा सवाल है कि क्या इतना सब कुछ करने के बाद भी लोगों ने मीडिया की तरफ
पलटकर भी देखा? लोगों ने क्या मीडिया की कवरेज पर भरोसा किया या फिर अखिलेश यादव
की मेहनत पर? साफ है वक्त आ गया है कि टीवी न्यूज के कैमरे सिर्फ बड़े चेहरों को कैद करने
या फिर गांधी परिवार का पिछलग्गू बनने की बजाए उन लोगों को रिकॉर्ड करे, जो लोगों के बीच
जाकर न सिर्फ मेहनत करते हैं, बल्कि आम जनता के बीच अपना असर पैदा करने में भी
कामयाब होते हैं।
हरीश चंद्र बर्णवाल
एक न्यूज चैनल में वरिष्ठ पत्रकार हैं