रविवार, 12 सितंबर 2010

फ्लॉप फिल्म

अपने डेढ़ साल के बच्चे श्रीशु को लेकर मैं अपनी पत्नी के साथ ढाई साल बाद फिल्म देखने मल्टीप्लेक्स जा रहा था। कहां मैं हर हफ्ते कम से कम एक फिल्म देख लेता था और कहां इस बच्चे की वजह से पिछले ढाई साल से कोई फिल्म नहीं देख पाया था। डर लग रहा था कि कहीं थियेटर के भीतर बदमाशी न करने... रोने न लगे... चिल्लाने न लगे...। अपने डेढ़ साल के मासूम की वजह से मुझे शर्मिंदगी न उठानी पड़े। मुझे याद था कि एक मित्र का सवा साल का बेटा थियेटर के अंदर इतना रोने लगा था कि कभी उसे गोद में लेकर मेरा दोस्त बाहर निकलता तो कभी उसकी पत्नी। दोनों बारी-बारी से फिल्म देख रहे थे। बच्चा थोड़ी देर तो इसी तरह से बहलता रहा और आखिर में इतनी तेजी से रोने लगा कि दोनों को फिल्म छोड़कर मल्टीप्लेक्स से बाहर निकलना पड़ा। पत्नी को ये किस्सा याद था, इसलिए बार-बार उम्मीद भरी नजरों से यही पूछ रही थी कि -
- "श्रीशु तो इतना बदमाश नहीं है।"
- "ये तो हॉल के भीतर ही पता चलेगा" - मैंने भी अनमने ढंग से जवाब दिया
- "हम ज्यादा देर इंतजार नहीं करेंगे, अलग-अलग फिल्म भी नहीं देखेंगे, बल्कि तुरंत बाहर निकल लेंगे" - पत्नी इस बार पूरे विश्वास के साथ बोलीं
मैंने कुछ जवाब नहीं दिया, बल्कि मुझे मुझे याद आ रहा था वो चुटकुला जिसमें हॉल के भीतर एक बच्चा काफी देर तक रोता रहता है। मां बाप से संभाले नहीं संभल रहा था जबकि थियेटर में बैठे लोग हैरान-परेशान। तभी बच्चे के रोने की आवाज से गुस्साए एक शख्स ने चिल्लाते हुए कहा - "बच्चे के मुंह में निपल दो।" इसे सुनते ही बच्चे का बाप काफी गुस्से में आ गया और फिर उसने भी चीखते हुए पूछा - "कौन बोला बे।" इसे सुनते ही झल्ला रहे बाकी दर्शकों में से किसी दूसरे शख्स ने भी झटके से कहा - "एक बाप के मुंह में भी दो।" कहीं हमारे साथ भी यही नौबत न आ जाए। ये सोचते ही मैंने भी झटके से कहा।
- "हां, इससे पहले ही हम निकल लेंगे" -
ये सब सोचता हुआ अपने-अपने मन में मगन होकर मैं, मेरी पत्नी और मेरा डेढ़ साल का श्रीशु तीनों मल्टीप्लेक्स पहुंचे। वहां काउंटर पर पहुंचते ही मेरी नजरे बाकी दर्शकों पर टिक गई। मेरी नजरें ढूंढ रही थी ऐसे शख्स को जिसके पास मेरे जितना ही कोई छोटा बच्चा हो। टिकट खरीदने वाले में एक शख्स के साथ एक बच्चे को देखा तो बेहद खुशी हुई, लेकिन ये क्या वो तो थोड़ा बड़ा लग रहा था, काफी अच्छे से दौड़ भाग करने की कोशिश कर रहा था।
- "इस बच्चे की उम्र भी दो-ढाई साल से ज्यादा नहीं होगी" – बच्चे को देखते हुए मैंने पत्नी से अंदाजा लगाते हुए कहा
- "दो ढाई साल!!! कम से कम 4-5 साल उम्र होगी" - पत्नी ने बहुत जल्दी और पूरे कॉन्फिडेंस से जवाब दिया। शायद मेरे पूछने का आशय उसने न समझा होगा, वर्ना उसे भी वो बच्चा दो ढाई साल से ज्यादा का नहीं लगता।
लेकिन फिर मैंने सोचा कि यहां तो कई फिल्में लगी हैं और मैं जो फिल्म देखने जा रहा हूं, ये तो जरूरी नहीं कि वो भी उसी फिल्म को देखे। इतना ही नहीं मेरे पास फिल्म की कोई च्वाइस नहीं थी। कई साल से हमने फिल्म भी देखी नहीं थी, इसलिए हमने सोच रखा था कि जिस फिल्म के टिकट सबसे पहले और खाली मिल जाए, वही फिल्म हम देखेंगे। खैर जो भी हो, मैंने टिकट बेचने वाले से बता दिया कि मेरे साथ एक छोटा बच्चा है। इसलिए मुझे कॉर्नर वाली सीट दी जाए, ताकि लोगों को कम से कम परेशानी हो। टिकट बेचने वाले ने भी मेहरबानी दिखाते हुए मुझे आखिरी की लाइन की वो सीट दी जो बॉक्सनुमा बना था और उसमें सिर्फ चार सीट थी। इसमें दो हमारे जिम्मे। हमें वी आर दी फैमिली नाम की फिल्म की टिकट मिली।
टिकट लेकर हम फिल्म देखने अंदर पहुंचे। वहां देखा कि हॉल लगभग खाली था, हमारे आसपास कोई नहीं बैठा था। दूर में सिर्फ तीन लोग थे। तीनों के तीनों पुरूष... हमें थोड़ा डर लगा कि इतने बड़े हॉल में सिर्फ पांच लोग। मेरे साथ मेरी पत्नी और एक छोटा बच्चा भी... डर तो लगा, लेकिन दिल को तसल्ली दिलाई कि अभी फिल्म शुरू होने में दस मिनट बाकी है। थोड़ी ही देर में हॉल भर जाएगा। लेकिन फिल्म शुरू होने को थी... और बमुश्किल पांच लोग और आए। इसमें से एक लड़की थी। मुझे समझते देर नहीं लगी कि हम लोग किसी फ्लॉप फिल्म को देखने आ गए हैं।
फिल्म शुरू हो चुकी थी, डेढ़ साल का श्रीशु इतने बड़े स्क्रिन को देखकर हतप्रभ। थोड़ा एन्ज्वॉय किया... उसके बाद हिलना डुलना शुरू किया... और फिर हाथ पैर चलाना। इसके बाद अचानक से रोना। मैं कनखियों से बाकी लोगों को देख रहा था कि उनके रिएक्शन क्या हैं? सबके सब फिल्म देखने में मगन। इस बीच मेरी पत्नी ने थोड़ी देर तक उसे बोतल का दूध थमा दिया... बेटा चुप हो गया। लेकिन तब भी वो ऐसी हलचल कर रहा था कि हम दोनों किसी तरह से फिल्म देखने भर की कोशिश कर पा रहे थे। मैं थोड़ा झेंप रहा था और जब वो तेजी से हल्ला करने लगा तो उसे चुप कराने के लिए पानी की बोतल और बिस्किट दे दिया। थोड़ी देर खेलने के बाद उसने दोनों चीजें फेंक दी और फिर एक सुर में रोने लगा। हम दोनों की परेशानी बढ़ चुकी थी, कभी फिल्म देखते तो कभी बच्चे को चुप कराने की कोशिश, इस बीच अचानक देखा कि श्रीशु ने रोना छोड़कर किसी के तरफ इशारे करना शुरू कर दिया है। देखा तो पाया कि बाकी आठ दर्शकों में एक जोड़ा श्रीशु की तरफ इशारे करके खेल रहा है। जबकि एक जोड़ा श्रीशु को देखकर मोबाइल चमका रहा है। बच्चा उसके साथ दूर से ही हमजोरी करने में मगन हो गया। ये देखकर हम दोनों ने फिल्म देखना शुरू कर दिया। बच्चा अब चुप था।
इंटरवल भी हो चुका था। जैसे ही फिल्म दोबारा शुरू हुई तो फिर से श्रीशु ने शैतानी करना शुरू कर दिया। वो कभी रोता तो कभी हल्ला करता। मेरी गोद से नीचे उतरने की कोशिश करता। फिर एकबारगी मैंने देखा तो पाया कि पास वाली सीट में एक शख्स बैठ गया है और वो फिल्म देखना छोड़कर श्रीशु से खेलने लगा है। श्रीशु को भी मजा आ रहा था इसलिए मैंने उसे बीच वाली सीट में बिठा दिया। इस दौरान बाकी दर्शकों पर भी नजर डाली तो पाया कि इंटरवल के बाद एक शख्स गायब हो गया है। जबकि एक जोड़ा जो आया था वो एक दूसरे की बाहों में बाहें डालकर गप्पे लगा रहा है औऱ बीच बीच में श्रीशु की तरफ इशारा भी कर रहा है। हम लोग भी सालों से भूखे किसी शख्स की तरह फिल्म देखने में व्यस्त थे। मेरी पत्नी का थोड़ा बहुत ध्यान जहां बच्चे पर भी टिका था, वहीं मेरी नजरें बाकी दर्शकों पर भी लगी हुई थी।
आखिरकार हम फिल्म देखने में कामयाब हो गए और फिर जंग जीतकर किसी विजेता की तरह बाहर आ गए। थियेटर से निकलने के बाद पत्नी ने कहा फिल्म अच्छी थी। मैंने भी सिर हिला दिया। बाकी लोगों के चेहरे को देखकर अंदाजा लगाना मुश्किल हो रहा था कि उन्हें फिल्म कैसी लगी। लेकिन हर कोई बाहर निकलने से पहले एक बार श्रीशु को प्यार कर रहा था, पुचकार रहा था।
- "श्रीशु समझदार हो गया है, फिल्म देखने में परेशान नहीं करता" - पत्नी ने बेटे को पुचकारते हुए कहा
- "हूं" - मैंने सिर हिलाकर कहा
- "अगली बार फिर से फिल्म देखने में हम आ सकते हैं" - पत्नी ने मेरी स्वीकृति देख दूसरी फिल्म की भूमिका भी तैयार कर ली।
मैंने कोई जवाब नहीं दिया, पत्नी बेटे को लाड कर रही थी, लेकिन मैं यही सोच रहा था कि पता नहीं अगली फ्लॉप फिल्म कब आए और मैं अपनी पत्नी को बच्चे के साथ ला सकूं।

कॉपीराइट - हरीश चंद्र बर्णवाल, 9810570862, hcburnwal@gmail.com

फ्लॉप फिल्म कहानी



अपने डेढ़ साल के बच्चे श्रीशु को लेकर मैं अपनी पत्नी के साथ ढाई साल बाद फिल्म देखने मल्टीप्लेक्स जा रहा था। कहां मैं हर हफ्ते कम से कम एक फिल्म देख लेता था और कहां इस बच्चे की वजह से पिछले ढाई साल से कोई फिल्म नहीं देख पाया था। डर लग रहा था कि कहीं थियेटर के भीतर बदमाशी न करने... रोने न लगे... चिल्लाने न लगे...। अपने डेढ़ साल के मासूम की वजह से मुझे शर्मिंदगी न उठानी पड़े। मुझे याद था कि एक मित्र का सवा साल का बेटा थियेटर के अंदर इतना रोने लगा था कि कभी उसे गोद में लेकर मेरा दोस्त बाहर निकलता तो कभी उसकी पत्नी। दोनों बारी-बारी से फिल्म देख रहे थे। बच्चा थोड़ी देर तो इसी तरह से बहलता रहा और आखिर में इतनी तेजी से रोने लगा कि दोनों को फिल्म छोड़कर मल्टीप्लेक्स से बाहर निकलना पड़ा। पत्नी को ये किस्सा याद था, इसलिए बार-बार उम्मीद भरी नजरों से यही पूछ रही थी कि -
- "श्रीशु तो इतना बदमाश नहीं है।"
- "ये तो हॉल के भीतर ही पता चलेगा" - मैंने भी अनमने ढंग से जवाब दिया
- "हम ज्यादा देर इंतजार नहीं करेंगे, अलग-अलग फिल्म भी नहीं देखेंगे, बल्कि तुरंत बाहर निकल लेंगे" - पत्नी इस बार पूरे विश्वास के साथ बोलीं
मैंने कुछ जवाब नहीं दिया, बल्कि मुझे मुझे याद आ रहा था वो चुटकुला जिसमें हॉल के भीतर एक बच्चा काफी देर तक रोता रहता है। मां बाप से संभाले नहीं संभल रहा था जबकि थियेटर में बैठे लोग हैरान-परेशान। तभी बच्चे के रोने की आवाज से गुस्साए एक शख्स ने चिल्लाते हुए कहा - "बच्चे के मुंह में निपल दो।" इसे सुनते ही बच्चे का बाप काफी गुस्से में आ गया और फिर उसने भी चीखते हुए पूछा - "कौन बोला बे।" इसे सुनते ही झल्ला रहे बाकी दर्शकों में से किसी दूसरे शख्स ने भी झटके से कहा - "एक बाप के मुंह में भी दो।" कहीं हमारे साथ भी यही नौबत न आ जाए। ये सोचते ही मैंने भी झटके से कहा।
- "हां, इससे पहले ही हम निकल लेंगे" -
ये सब सोचता हुआ अपने-अपने मन में मगन होकर मैं, मेरी पत्नी और मेरा डेढ़ साल का श्रीशु तीनों मल्टीप्लेक्स पहुंचे। वहां काउंटर पर पहुंचते ही मेरी नजरे बाकी दर्शकों पर टिक गई। मेरी नजरें ढूंढ रही थी ऐसे शख्स को जिसके पास मेरे जितना ही कोई छोटा बच्चा हो। टिकट खरीदने वाले में एक शख्स के साथ एक बच्चे को देखा तो बेहद खुशी हुई, लेकिन ये क्या वो तो थोड़ा बड़ा लग रहा था, काफी अच्छे से दौड़ भाग करने की कोशिश कर रहा था।
- "इस बच्चे की उम्र भी दो-ढाई साल से ज्यादा नहीं होगी" – बच्चे को देखते हुए मैंने पत्नी से अंदाजा लगाते हुए कहा
- "दो ढाई साल!!! कम से कम 4-5 साल उम्र होगी" - पत्नी ने बहुत जल्दी और पूरे कॉन्फिडेंस से जवाब दिया। शायद मेरे पूछने का आशय उसने न समझा होगा, वर्ना उसे भी वो बच्चा दो ढाई साल से ज्यादा का नहीं लगता।
लेकिन फिर मैंने सोचा कि यहां तो कई फिल्में लगी हैं और मैं जो फिल्म देखने जा रहा हूं, ये तो जरूरी नहीं कि वो भी उसी फिल्म को देखे। इतना ही नहीं मेरे पास फिल्म की कोई च्वाइस नहीं थी। कई साल से हमने फिल्म भी देखी नहीं थी, इसलिए हमने सोच रखा था कि जिस फिल्म के टिकट सबसे पहले और खाली मिल जाए, वही फिल्म हम देखेंगे। खैर जो भी हो, मैंने टिकट बेचने वाले से बता दिया कि मेरे साथ एक छोटा बच्चा है। इसलिए मुझे कॉर्नर वाली सीट दी जाए, ताकि लोगों को कम से कम परेशानी हो। टिकट बेचने वाले ने भी मेहरबानी दिखाते हुए मुझे आखिरी की लाइन की वो सीट दी जो बॉक्सनुमा बना था और उसमें सिर्फ चार सीट थी। इसमें दो हमारे जिम्मे। हमें वी आर दी फैमिली नाम की फिल्म की टिकट मिली।
टिकट लेकर हम फिल्म देखने अंदर पहुंचे। वहां देखा कि हॉल लगभग खाली था, हमारे आसपास कोई नहीं बैठा था। दूर में सिर्फ तीन लोग थे। तीनों के तीनों पुरूष... हमें थोड़ा डर लगा कि इतने बड़े हॉल में सिर्फ पांच लोग। मेरे साथ मेरी पत्नी और एक छोटा बच्चा भी... डर तो लगा, लेकिन दिल को तसल्ली दिलाई कि अभी फिल्म शुरू होने में दस मिनट बाकी है। थोड़ी ही देर में हॉल भर जाएगा। लेकिन फिल्म शुरू होने को थी... और बमुश्किल पांच लोग और आए। इसमें से एक लड़की थी। मुझे समझते देर नहीं लगी कि हम लोग किसी फ्लॉप फिल्म को देखने आ गए हैं।
फिल्म शुरू हो चुकी थी, डेढ़ साल का श्रीशु इतने बड़े स्क्रिन को देखकर हतप्रभ। थोड़ा एन्ज्वॉय किया... उसके बाद हिलना डुलना शुरू किया... और फिर हाथ पैर चलाना। इसके बाद अचानक से रोना। मैं कनखियों से बाकी लोगों को देख रहा था कि उनके रिएक्शन क्या हैं? सबके सब फिल्म देखने में मगन। इस बीच मेरी पत्नी ने थोड़ी देर तक उसे बोतल का दूध थमा दिया... बेटा चुप हो गया। लेकिन तब भी वो ऐसी हलचल कर रहा था कि हम दोनों किसी तरह से फिल्म देखने भर की कोशिश कर पा रहे थे। मैं थोड़ा झेंप रहा था और जब वो तेजी से हल्ला करने लगा तो उसे चुप कराने के लिए पानी की बोतल और बिस्किट दे दिया। थोड़ी देर खेलने के बाद उसने दोनों चीजें फेंक दी और फिर एक सुर में रोने लगा। हम दोनों की परेशानी बढ़ चुकी थी, कभी फिल्म देखते तो कभी बच्चे को चुप कराने की कोशिश, इस बीच अचानक देखा कि श्रीशु ने रोना छोड़कर किसी के तरफ इशारे करना शुरू कर दिया है। देखा तो पाया कि बाकी आठ दर्शकों में एक जोड़ा श्रीशु की तरफ इशारे करके खेल रहा है। जबकि एक जोड़ा श्रीशु को देखकर मोबाइल चमका रहा है। बच्चा उसके साथ दूर से ही हमजोरी करने में मगन हो गया। ये देखकर हम दोनों ने फिल्म देखना शुरू कर दिया। बच्चा अब चुप था।
इंटरवल भी हो चुका था। जैसे ही फिल्म दोबारा शुरू हुई तो फिर से श्रीशु ने शैतानी करना शुरू कर दिया। वो कभी रोता तो कभी हल्ला करता। मेरी गोद से नीचे उतरने की कोशिश करता। फिर एकबारगी मैंने देखा तो पाया कि पास वाली सीट में एक शख्स बैठ गया है और वो फिल्म देखना छोड़कर श्रीशु से खेलने लगा है। श्रीशु को भी मजा आ रहा था इसलिए मैंने उसे बीच वाली सीट में बिठा दिया। इस दौरान बाकी दर्शकों पर भी नजर डाली तो पाया कि इंटरवल के बाद एक शख्स गायब हो गया है। जबकि एक जोड़ा जो आया था वो एक दूसरे की बाहों में बाहें डालकर गप्पे लगा रहा है औऱ बीच बीच में श्रीशु की तरफ इशारा भी कर रहा है। हम लोग भी सालों से भूखे किसी शख्स की तरह फिल्म देखने में व्यस्त थे। मेरी पत्नी का थोड़ा बहुत ध्यान जहां बच्चे पर भी टिका था, वहीं मेरी नजरें बाकी दर्शकों पर भी लगी हुई थी।
आखिरकार हम फिल्म देखने में कामयाब हो गए और फिर जंग जीतकर किसी विजेता की तरह बाहर आ गए। थियेटर से निकलने के बाद पत्नी ने कहा फिल्म अच्छी थी। मैंने भी सिर हिला दिया। बाकी लोगों के चेहरे को देखकर अंदाजा लगाना मुश्किल हो रहा था कि उन्हें फिल्म कैसी लगी। लेकिन हर कोई बाहर निकलने से पहले एक बार श्रीशु को प्यार कर रहा था, पुचकार रहा था।
- "श्रीशु समझदार हो गया है, फिल्म देखने में परेशान नहीं करता" - पत्नी ने बेटे को पुचकारते हुए कहा
- "हूं" - मैंने सिर हिलाकर कहा
- "अगली बार फिर से फिल्म देखने में हम आ सकते हैं" - पत्नी ने मेरी स्वीकृति देख दूसरी फिल्म की भूमिका भी तैयार कर ली।
मैंने कोई जवाब नहीं दिया, पत्नी बेटे को लाड कर रही थी, लेकिन मैं यही सोच रहा था कि पता नहीं अगली फ्लॉप फिल्म कब आए और मैं अपनी पत्नी को बच्चे के साथ ला सकूं।

कॉपीराइट - हरीश चंद्र बर्णवाल, hcburnwal@gmail.com

रविवार, 4 जुलाई 2010

सपनों की हार

सपनों का टूट जाना क्या होता है वो कोई घाना के खिलाड़ियों से पूछ सकता है, बदलते इतिहास के मुहाने से वापस चले आना क्या होता है वो कोई अफ्रीका की अगुआई करने वाले खिलाड़ियों से समझ सकता है। रंगभेद के खिलाफ जंग लड़ते लड़ते इस मुकाम से खाली हाथ लौट आने का दर्द क्या होता है वो कोई आंसुओं में डूबे हुए अफ्रीकी महादेश के खिलाड़ियों से पूछ सकता है।
शुक्रवार रात दूसरे क्वार्टर फाइनल में घाना की टीम उरुग्वे से हार गई लेकिन ये हार सिर्फ एक टीम की हार नहीं है बल्कि पूरे अफ्रीका की हार है। उन भावनाओं की हार है जिन्होंने 70 साल में पहली बार फुटबॉल वर्ल्ड के सेमीफाइनल में पहुंचने का सपना देखा था। उन अश्वेत खिलाड़ियों की हार है जिन्होंने अपने दमखम से ये साबित करने की कोशिश की वो भी किसी भी मुकाबले में किसी को भी चुनौती देने का दमखम रखते हैं। उरुग्वे के खिलाफ घाना के खिलाड़ियों में कहीं कोई कमी नहीं दिखी। कमी थी तो बस इतनी कि वो अपनी कोशिशों को अंजाम तक नहीं पहुंचा पाए।
अफ्रीका की एकमात्र टीम घाना सेमीफाइनल में नहीं पहुंच पाई। बस फिर क्या था घाना के खिलाड़ियों की आंखों से आंसुओं का सैलाब निकल पड़ा। घाना के खिलाड़ी ज्ञान को ये समझ में नहीं आया कि आखिर चूक कहां हुई।
मैच अतिरिक्त समय के बाद भी 1-1 की बराबरी पर छूटा। इस दौरान गोल में तब्दील करने के एक मौके को घाना के खिलाड़ी चूके जरूर लेकिन जीत के लिए इनके मन में इतनी ललक पैदा हो चुकी थी कि स्ट्रेचर से उठकर घायल ज्ञान खेलने के लिए वापस मैदान पर लौट आए जब पेनल्टी शूट आउट में घाना के खिलाफ हर बार गोल दागे जा रहे थे तो इसी के साथ अफ्रीका के सपने तार-तार हो रहे थे जब शूट आउट के जरिये उरुग्वे की जीत तय हो गई तो इसी के साथ पूरे स्टेडियम में मायूसी छा गई। हालत ये हो गई कि स्ट्रेचर से उठकर मैदान पर लौटने वाला ज्ञान किसी के संभाले नहीं संभल रहा था। कभी वो आसमान की ओर टकटकी लगाए देखता तो कभी अपने जिस्म को खुरच देने की कोशिश करता, कभी टी शर्ट से अपने चेहरे को छुपाने की कोशिश करता तो कभी जमीन पर गिरे पड़े रहने की कोशिश लेकिन हकीकत को टाला नहीं जा सकता।
कम से कम इस कोशिश से घाना की टीम ने ये तो जता दिया कि फुटबॉल के मैदान पर वो किसी भी देश के लिए एक बड़ी चुनौती पेश करेंगे और वो दिन भी दूर नहीं जब पहली बार अफ्रीका की कोई टीम सेमीफाइनल में पहुंचेगी। बल्कि ये जज्बा बरकरार रहा तो इसके खिलाड़ी इस कप को चूमते हुए भी नजर आएंगे।

सोमवार, 3 मई 2010

तेंदुलकर ने हरा दिया

भारतीय क्रिकेट के भगवान को भारतीय क्रिकेट के जादूगर ने परास्त कर दिया। लेकिन इससे भी बड़ी बात ये है कि आईपीएल 3 का फाइनल मैच तेंदुलकर ने मुंबई इंडियंस का हरा दिया। उनकी वजह से ही टीम को हार का मुंह देखना पड़ा। ये सब पढ़कर आप जरूर चौंक रहे होंगे... लेकिन इसकी कई वजहें हैं... फील्डिंग, बैटिंग, कप्तानी कुछ भी लें ले... आपको साफ पता चल जाएगा कि कैसे सचिन न सिर्फ एक बेबस कप्तान हैं... बल्कि एक लीडर के तौर पर उनके पास कोई विजन ही नहीं है।
पहले बात करते हैं उनकी कप्तानी की। एक कप्तान के तौर पर सचिन ने इतनी गलतियां की कि मुंबई इंडियंस को हारने से कोई नहीं रोक सकता था। मसलन उन्होंने अपनी बेंच स्ट्रेंथ का बहुत ही गंदे तरीके से इस्तेमाल किया। किसी को भी सचिन के इस फैसले से हैरानी हुई कि आखिर उन्होंने केरॉन पोलार्ड को इतनी देरी से क्यों बुलाया। हालांकि बाद में खुद सचिन ने भी इस गलती को स्वीकार किया। जरा खुद सोचिए इतने बल्लेबाज होने के बाद भी हरभजन दूसरे नंबर पर और पोलार्ड छठे नंबर पर बुलाए गए...
इसके अलावा पूरे मैच के दौरान सचिन का रवैया एक ऐसे कप्तान का नहीं था, जो अपने खिलाड़ियों को उत्साहित करते रहें। बल्कि बार बार सचिन खुद मैदान में झुंझला रहे थे। सचिन की झुंझलाहट को लोगों ने दो बार साफ तौर पर महसूस किया। पहली बार तब जब रैना का आसान कैच दो फील्डरों ने कंफ्यूजन में छोड़ दिया और दूसरा तब जब अभिषेक नायर रन आउट हो गए... उस समय तेंदुलकर ने गुस्से में अपना बैट तक पटक दिया। इसके अलावा सचिन Decision making में भी काफी कमजोर हैं, जो कि साफ दिख रहा था।
सचिन की बैटिंग का भी आकलन करें तो उनमें जीत के जज्बे की कमी साफ झलक रही थी। बल्कि हर वक्त वो दबाव में खेलते दिख रहे थे। सचिन एक महानतम बल्लेबाज हैं... इसमें किसी को कोई भी शक नहीं है। लेकिन उन्होंने टीम के लिए जिस तरह की धीमी शुरुआत दी... उससे पूरी टीम ही दबाव में आ गई। ऐसा लगा मानो वो सिर्फ पिच पर टिकने के लिए ही खेल रहे हों।
कल किसी ने ये कहा कि टॉस हारने की वजह से सचिन ये मैच हार गए... तो इसमें दो बातें कहना चाहूंगा... पहला ये कि इस लीग में मुंबई इंडियंस जैसा मजबूत टीम कॉम्बिनेशन किसी का नहीं है... इतना ही नहीं अगर सचिन की जगह धोनी मुंबई इंडियंस के कप्तान होते और सचिन चेन्नई सुपर किंग्स के... साथ ही टॉस जीतकर चेन्नई ही पहले बल्लेबाजी करती... तब भी सचिन की टीम हार जाती... और धोनी ही जीतते
कहने का मतलब सिर्फ ये है कि सचिन भले ही भारतीय क्रिकेट के भगवान हों... एक बल्लेबाज के तौर पर दुनिया का कोई भी खिलाड़ी भले ही उनके आसपास भी न हो... लेकिन एक कप्तान के तौर पर सचिन तेंदुलकर फेल हैं। इसलिए उन्हें सहवाग की तरह कप्तानी जरूर छोड़ देनी चाहिए। सचिन एक नायाब हीरा हैं... लेकिन उन्हें भी एक जौहरी की जरूरत है। आखिरी बात ये कि सचिन का भले ही वर्ल्ड कप जीतना एक सपना हो। वो इसे सिर्फ अपनी बल्लेबाजी के जरिये हासिल तो कर सकते हैं... लेकिन ये तभी संभव है... जब उनके साथ धोनी जैसा एक जौहरी भी साथ हो।

हरीश चंद्र बर्णवाल
एसोसिएटर एक्जक्यूटिव प्रोड्यूसर
IBN7

गुरुवार, 21 जनवरी 2010

पत्रकार नीरज भूषण लिख रहे हैं 'पीटीआई डायरी'

प्रेस ट्रस्ट ऑफ़ इंडिया (पीटीआई) में फैली अव्यवस्था की पोल खोलने के उद्देश्य से पत्रकार नीरज भूषण आजकल पीटीआई डायरी लिख रहे हैं. यह डायरी वे अपने वेबसाइट 'नीरज भूषण.कॉम' पर लिख रहे हैं. हर रविवार को वे एक नयी पोस्टिंग डालते हैं जिसमें पीटीआई में काम करने के दौरान अपने अनुभवों को साझा करते हैं. इस पीटीआई डायरी का नाम उन्होंने 4 पार्लियामेंट स्ट्रीट (4 Parliament Street’) दिया है. गौरतलब है कि पीटीआई का हेड ऑफिस 4 पार्लियामेंट स्ट्रीट पर ही स्थित है. READ MORE...