रविवार, 28 जून 2009

कुछ छूट गया है -

शैलेंद्र जी के बारे में लिखने की बिल्कुल ही इच्छा नहीं थी क्योंकि मुझे मालूम है कि जैसे-जैसे यादों की चारदीवारी में घुसने की कोशिश करूंगा, मैं अपने आंसूओं को रोक नहीं पाऊंगा... कभी वो अपनी लिखी गजलों और नज्मों को सैकड़ों हजारों बार गुनागुनाकर सुनाए होंगे... अब मैं उनके द्वारा सौंपी गई किताब की पहली प्रति में लिखी गजलों और नज्मों को कई कई बार पढ़ रहा हूं... शुक्रवार (18 मई) देर रात साढ़े तीन बजे जब शारदा हॉस्पीटल के एक कर्मचारी ने मुझे फोन पर बताया कि शैलेंद्र जी का एक्सीडेंट हो गया है, वो भी ग्रेटर नोएडा एक्सप्रेस हाईवे पर... तो दिमाग जैसे सुन्न पड़ गया... बार बार ये सवाल उठने लगे कि आखिर रात के साढ़े तीन बजे वो ग्रेटर नोएडा एक्सप्रेस वे पर क्या कर रहे थे... लेकिन मन में कहीं न कहीं शैलेंद्र जी की लिखी नज्म ही याद आ रही थी

"मैं भटक रहा था डगर-डगर, मैं उजड़ रहा था नगर-नगरमेरा दिन नहीं निकला कभी, मेरी रात होती थी रात भरमेरी बेखुदी मेरे साथ थी, मेरे दिल में एक ही बात थीकि हो राह कितनी ही पुरखतर, मैं रहूंगा खुद को तलाश कर"

क्या शैलेंद्र जी खुद को तलाश करने निकले थे... दरअसल शैलेंद्र की तलाश बरसों की है... चाहे वो मुंबई का वाकया हो, या फिर दिल्ली का... घंटों यूं ही इधर उधर भटकना। मुंबई में कभी मेरी बाइक से तो कभी यूं ही पैदल... वर्ली सीफेस, जुहू बीच, मरीन ड्राइव्स, या फिर नरीमन प्वाइंट... इसी यायावरी जिंदगी को वो दिल्ली में भी जीने की कोशिश कर रहे थे... देर रात एक्सप्रेस हाईवे पर चले जाना... या फिर फिल्म सिटी के इर्द गिर्द चक्कर लगाना... लेकिन इसके बावजूद उनके मन के किसी न किसी कोने में हलचल बनी रहती, हर वक्त बेचैनी... आखिर ये कौन सी तलाश थी। खुद वो लिखते हैं

"मैं यू दर-ब-दर, यूं डगर-डगर, किसे ढूंढता हूं नगर-नगरतू समझ सकेगा न हमसफर, ये तलाश ही कोई और है"

वाकई एक ऐसी तलाश में जुटे थे शैलेंद्र, जिसके बारे में कोई भी दावा के साथ कुछ नहीं कह सकता... क्योंकि ये सब कहने से पहले उस हद तक साहस भी चाहिए... और मंजिल की तलाश भी एक बहुत विचित्र तरीके से होती थी। वो मौत के बेहद करीब से होकर गुजरना चाहते थे। गजलों की किताब पूरी करने के लिए उन्होंने शराब की दुनिया में गोते लगाकर जिस तरह से अपनी जिंदगी के साथ ही भयंकर एक्सपेरिमेंट करने की कोशिश की... वो बहुत डरावनी है... कई बारगी उन्होंने ये प्रयोग मुंबई के मेरे कमरे में करने की कोशिश की है। तब मैं भीतर से डर जाता था और मेहा भाभी ( शैलेंद्र जी की पत्नी ) को फोन कर मुंबई भी बुला चुका था। किसी भी काम को करते समय वो हद से भी गुजर जाना चाहते थे। ऐसे वक्त में उन्हें किसी भी बात का ख्याल नहीं रहता था। एक बार जब लोअर परेल में उनके कमरानुमा फ्लैट में पहुंचा तो देखता हूं कि वो किसी से बात कर रहे हैं... मैं उस समय सन्न रह गया कि उनका मोबाइल तो दूर कहीं पड़ा है... जबकि सिर्फ हाथ कान में चिपकाए हुए वो लगातार आधे घंटे तक किसी से बात करते रहे... मैं सही बताऊं तो उस समय डरकर तुरंत बाहर निकला, उनके फ्लैट के दरवाजे लगाए और अपने घर वापस आ गया। इस बात का जिक्र मैंने उस समय स्टार न्यूज में उनके करीबी गौरव बैनर्जी से भी किया था। तो शैलेंद्र ने इसके बारे में बिना कुछ बताए बात को टाल दी। लेकिन हकीकत वो खुद अपनी एक कविता में भी बयान करते हैं... अंतत: नाम की अपनी कविता में वो लिखते हैं

"आखिकार...अंतत: पता नहीं किससे रोज होती है निरंतर बातचीतपता नहीं"

extreme में जाना शैलेंद्र जी का शौक ही नहीं बल्कि नियति थी। और इस नियति को उन्होंने खुद चुना था। आखिर कैसे, ये बताने से पहले मैं उनकी किताब कुछ छूट गया है में भूमिका की आखिरी पंक्ति उद्धृत कर रहा हूं। उन्होंने लिखा है कि - "मुंबई के लोअर परेल का वो एक कमरा नहीं होता तो शायद इस पुस्तक का सफर अधूरा ही रहता।"

उन्होंने सच लिखा है कि उस एक कमरे के बिना न तो शायद ये किताब पूरी हुई होती... और न ही उनकी जिंदगी का एक बड़ा अंश पूरी दुनिया के सामने आया होता... और न ही मेरी और उनकी घनिष्ठता हो पाती। शैलेंद्र जी गजलों की किताब लिखना शुरू कर चुके थे... और ज्यादातर वक्त उनका मेरे लोअर परेल के उसी फ्लैटनुमा कमरे में ही गुजरता था। इस एक कमरे से तो कई कहानियां जुड़ी हैं... लेकिन सबसे मजेदार कहानी आपको बताता हूं... पहली बार मुझे फ्लाइट से मुंबई से कोलकाता जाना था। उससे पहले की रात मेरे कमरे में मंडली जमी हुई थी... रात में गप्पें मारने के लिए मेरे साथ शैलेंद्र जी और दो दोस्त भी मौजूद थे। रात भर हमलोगों ने खूब गप्पें मारीं। शैलेंद्र जी उस समय खूब शराब पीते थे... उस दिन भी उनका मन था... उनका साथ देने के लिए एक दोस्त तो तैयार था... लेकिन मेरे आलावा एक और शख्स शराब नहीं पीते थे... इसलिए शैलेंद्र शराब पीने के लिए हमें रात भर डराते रहे ... कि फ्लाइट में सफर कर लेने से पहले शराब पीना बेहद जरूरी है... क्योंकि फ्लाइट में एक्सिडेंट होने के बाद बचना बिल्कुल भी नामुमकिन है। इसलिए नशे में इंसान को डर नहीं लगता... तो ये है शैलेंद्र जी का मिजाज... जाते जाते मैंने अपने फ्लैट की चाबी शैलेंद्र जी तो दे दी... क्योंकि उन्होंने साफ कर दिया था कि इस कमरे पर अब मेरे से ज्यादा उनका हक हो गया है। जब करीब दो हफ्ते बाद मुंबई वापस आया तो देखता हूं कि चारों तरफ शराब की बोतलें बिखरी पड़ी हैं... पानी रखने के टब के भीतर कई बोतलें पड़ी हैं... गैस सिलेंडर, चूल्हे, कपड़े रखने के दराज... हर तरफ शराब की बोतलें... ऐसा नहीं था कि शैलेंद्र कोई बहुत पुराने शराबी हों... लेकिन उनको extreme में जाना अच्छा लगता था। होश खोकर दुनिया को देखने का उनका बहुत बडा़ शौक था। वो खुद लिखते हैं...
"फिलहाल तो हमको बहने दोअपना हर दुख-सुख सहने दोहमको भी शराफत मालूम हैहमको भी समझ है दुनिया की"extreme तक पहुंचने के उनके इस शौक में मुझे कई बारगी भारी परेशानी का सामना करना पड़ा। कई बार मैं irritate हुआ, कई बार उनसे लडा़ई की... लेकिन उनका व्यक्तित्व ही ऐसा था कि मैं कभी दूर नहीं हो पाया... चाहे इसके लिए मुझे दफ्तर पहुंचने में देरी हुई हो... या फिर दूसरी परेशानी का सामना करना पडा़। एक वाकया बताता हूं... मुंबई में जब उनके फ्लैट पहुंचा तो वो नशे में थे... और मन ही मन कुछ गुनगुना रहे थे... उन्होंने मेरी तरफ बिल्कुल भी ध्यान नहीं दिया। तो मैं भी वापस अपने फ्लैट (लोअर परेल में मेरा और उनका फ्लैट आमने सामने था) में आ गया। दूसरे दिन मैं फिर उनके पास पहुंचा... तो वो उस वक्त भी नशे में थे। तीसरे दिन पहुंचा तो देखता हूं कि वो बिल्कुल भी चलने फिरने की स्थिति में नहीं हैं... नशे में सराबोर हैं... न तो मेरी तरफ ध्यान दे रहे हैं और न ही बातचीत कर रहे हैं... फिर मैं उनको उठाकर अपने कमरे में ले आया। यहां उन्हें ठीक करने की भरपूर कोशिश की... लेकिन वो पूरी तरह नशे में डूबे थे... अब मैंने उनके शराब पीने पर पूरी तरह से पाबंदी लगा दी थी... लेकिन उनका नशा उतरने का नाम ही नहीं ले रहा था... उन्होंने खुद लिखा भी"पांचवें दिन भी पिया जिसको, बिना कुछ खाएऔर सुध अपनी गंवाकर मैं गिरा तब भी था"जब मैं हर तरफ से थक हार गया तो फिर मेहा भाभी को दिल्ली फोन किया... और सिर्फ यही कहा कि भाभी अगर आप चाहते हैं कि आपका शैलेंद्र सही सलामत रहें तो आप तुरंत मुंबई आ जाइये... भाभी आस्था और आदि को लेकर दिल्ली से निकल पड़ीं... और रास्ते भर मुझसे शैलेंद्र जी का हालचाल लेती रहीं... कुछ यही वाकया 18 मई की रात को हुआ ... जब मुझे पता चला कि शैलेंद्र जी का एक्सीडेंट हो गया है तो मैंने रात के साढ़े तीन बजे भाभी को फोन कर पूछा कि शैलेंद्र भैया कहां हैं... तो उन्होंने बताया कि घर से बाहर हैं... आखिरी बार ढाई बजे रात बात हुई है और वो रास्ता भटक गए हैं.... ये सब सुनने के बाद मैंने भाभी को बताया कि उनका एक्सिडेंट हो गया है........ शैलेंद्र जी पिछले सात साल में तीन बार हॉस्पीटल में भर्ती हुए और तीनों ही बार इसकी जानकारी मैंने ही भाभी को दी... हर बार भाभी पूछती रहीं कि शैलेंद्र ठीक तो हैं न... तो मैंने बार बार यही कहा कि आप चिंता मत कीजिए... मैं हूं न... लेकिन इस बार मैं ऐसा न कह सका.... बस यही कहा कि भाभी वो ठीक हैं... लेकिन आप जब हॉस्पीटल पहुंच जाएं तो बताइयेगा कि कैसी हालत है...

शैलेंद्र जी की शख्सियत एक भरा पूरा व्यक्तित्व है... जिसके कई आयाम हैं.... वो कभी अलविदा नही कह सकते .... कभी गुनगुनाते हुए सामने आ जाते हैं... कभी मजाक करते नजर आते हैं ... तो कभी गुस्सा होते हुए। मुझे याद आता है कि हमें साथ साथ रहते कई साल गुजर गए... लेकिन कभी पता नहीं चला कि उन्हें ढोलक भी बजाना आता है... एक बार मेहा भाभी दोनों बच्चों के साथ मुंबई आई हुईं थीं... तो हर बार की तरह मेरा रात का खाना वहीं बना हुआ था,,, हम डिनर के लिए पहुंचे... रात में खाने पीने के बाद गाने बजाने का दौर शुरू हुआ... सबसे पहले मैंने उनकी लिखी एक गजल गाकर सुनाई... उसके बाद उन्होंने हम सबको ढोलक बजाकर सुनाना शुरू कर दिया... मैं हैरान रह गया कि उन्होंने अलग अलग रागों में तकरीबन एक घंटे तक ढोलक बजाया... वो भी थाली और लकड़ी के पट्टे में... मैं दंग था क्योंकि अब तक उनके इस हुनर से अपरिचित था... उन्होंने सही लिखा है

"कौन कैसा है, क्या है, क्यूंकर हैआप सोचे नहीं तो बेहतर है"

वाकई शैलेंद्र जी के व्यक्तित्व को समझना आसान नहीं... मैंने उनके साथ लंबा अर्सा गुजारा... मेरी शादी में जब इनका पूरा परिवार शरीक हुआ तो ये संबंध और भी प्रगाढ़ हुआ... इसके बावजूद मैं ये तो जानता हूं कि शैलेंद्र जी के व्यक्तित्व का दायरा कितना बडा़ था ... लेकिन ये अब भी नहीं जानता कि उस व्यक्तित्व में क्या कुछ समाया हुआ है... कभी वो गीता पर बोलने लगते... तो कभी गालिब से लेकर निदा फाजली के शेर गुनगुनाने लगते.... कभी टेलीविजन में स्क्रिप्ट की जादूगरी पर बात करने लगते... तो कभी कभी ढोलक बजाते बजाते पूरी रात काट देते... इसके अलावा भी उनके व्यक्तित्व के कई ऐसे सिरे हैं.... जिसे मैंने छुआ तो जरूर लेकिन कभी पकड़ नहीं पाया...

एक दिन शैलेंद्र जी को फिल्म देखने का मूड हुआ... मेरी बाइक से दोनों मराठा मंदिर पहुंचे और वहां किसी फिल्म ( नाम नहीं याद है) की टिकट खरीदी... टिकट खरीदने के बाद इनके मूड में आया कि कहीं शराब पी जाए। फिल्म शुरू हो चुकी थी, लेकिन हम दोनों पहुंच गए मरीन ड्राइव्स में एक रेस्टोरेंट ... वहां शराब पी... जब उठकर जाने लगे... तो इन्होंने वेटर को पांच सौ रुपये थमा दिए... इसके बाद जब पार्किंग से अपनी बाइक लेकर जाने लगे... तो वहां खड़ा शख्स मुझसे पार्किंग चार्ज 10 की बजाए 15 रुपये मांगने लगा... जब मैंने उसे डांटा तो वो आदमी रोने गाने लगा कि गरीब हूं... 15 रुपये ही दे दीजिए। मैं पैसे देता... इससे पहले ही शैलेंद्र जी ने 500 रुपये का नोट थमा दिया और हम लोग चल पड़े। मराठा मंदिर पहुंचे तो लगभग 1 घंटे की फिल्म खत्म हो चुकी थी। इसके बाद इंटरवल तक फिल्म देखी... और फिर उनका मूड पीने का हुआ। और हम लोग लोअर परेल के अपने घर पहुंच गए। आज मुझे उनकी लिखी एक शेर याद आती है...

"इन गलियों से सब लोग गुजर जाते हैं जैसेऐसे ही भला मैं भी गुजर क्यूं नहीं जाता"

वाकई जिन गलियों से तमाम लोग यूं ही गुजर गए... उन गलियों में शैलेंद्र खुद को कभी सहज नहीं रख पाए... बल्कि हर वक्त उनकी आंखों में एक दूसरी ही दुनिया विद्यमान रहती थी... उस दुनिया में बहुत कुछ था। लेकिन आप ये न समझ लें कि ये शराब की मदहोशी में डूबी हुई दुनिया थी, बल्कि शराब तो बहाना थी... न तो उन गजलों को लिखने से पहले उन्होंने उस शिद्दत से शराब पीयी... और न ही किताब लिखने के बाद उन्होंने शराब की दुनिया में कभी गोते लगाए। बल्कि मेरे जैसा आदमी जो कभी कभार एकाध पैग ले लेता था... तो वो हमेशा मना करते... लेकिन मैं गवाह हूं उनकी उस किताब का... जो एक मुकम्मल जिंदगी है...

"घड़ी दर घड़ी खुद में उलझा रहाखिलौनों की मानिन्द बिखरा रहान जाने क्यों इतनी बेचैनी लिएगली-दर-गली मैं भटकता रहा"

शैलेंद्र का कैनवास बहुत बड़ा है। भाषा की कलात्कता से लेकर साहित्य का तड़का लगाने तक हर फ्लेवर उनके अंदर मौजूद हैं। उनसे दोस्ती का आधार था मेरी गजल की किताब। जब उन्हें स्टार न्यूज में काम करने के दौरान पता चला कि मैंने गजलों पर एक किताब लिखी है... और उसका विमोचन मुंबई में ही हुआ है... तो उन्होंने मुझसे वो किताब मांगी। और फिर बताया कि वो भी गजलों पर एक किताब लिखने की योजना बना रहे हैं। आप ये जानकर हैरान रह जाएंगे कि जब इनकी किताब "कुछ छूट गया है" के विमोचन के लिए दिल्ली आया तो यहां पर एक रात निदा फाजली, साहित्यकार बोधिसत्व और हमारी महफिल जमी। इस महफिल में रात भर का मुद्दा सिर्फ और सिर्फ शैलेंद्र थे। खुद निदा फाजली ने इनके व्यक्तित्व पर इतना कुछ कहा... जो किसी के लिए भी गर्व की बात हो सकती है। आज बिल्कुल भी यकीन नहीं होता कि शैलेंद्र हम सबको छोड़कर कहीं चले गए हैं... और फिर कभी नहीं आएंगे... क्योंकि उन्होंने हमेशा छोड़कर जाने की धमकी दी है... वो जाते भी हैं... लेकिन जल्द ही लौट आते हैं... कभी एक दिन में, कभी हफ्तों में तो कभी महीनों में... "तेज दोपहरी में निकला जो मैं घर से उस दिनआज तक लौटके फिर घर नहीं देखा मैंनेजीस्त की राह में जिस मोड़ से आगे निकलाउसको भूले से भी मुड़कर नहीं देखा मैंने"लेकिन इस बार उनका इरादा नेक नहीं था... क्या पता था कि वो लंबी छलांग लगाने के इरादे से देर रात निकले हैं.... और फिर कभी नहीं लौटेंगे... क्या इसकी स्क्रिप्ट उन्होंने पहले से लिख ली थी... वर्ना वो ऐसा क्यों कहते कि

"इक परिंदा चला आसमां नापनेरास्ते में ही दम तोड़कर गिर गया"

लेकिन मेरा भरोसा दूसरा है... शैलेंद्र इतने बेरुखे नहीं हो सकते... कैसे वो मेहा भाभी, आस्था और महज 6 साल के आदि को छोड़ सकते हैं... क्या वो फिर लौटेंगे... क्या वो फिर आकर उन्हें गोद में लेंगे... क्या एक बार फिर वो आदि का मुझसे परिचय करवाएंगे कि तुम्हारा हरीश दोस्त आ गया... दुनिया कुछ भी कहे, लेकिन मुझे पूरा भरोसा है... क्योंकि उन्होंने एक दो बार नहीं... कम से कम सैकड़ों बार पूरे परिवार के सामने इस नज्म को गुनगुनाकर सुनाया है...

"इक बार तेरी राह में आऊंगा मैं जरूरकुछ है मेरा जो पास तेरे छूट गया है"

शैलेंद्र खुद भी इस दुनिया को छोड़कर कहां जाना चाहते थे... बल्कि एक्सपेरिमेंट करना चाहते थे... उन्हें गीता का हिन्दी अनुवाद पूरा करना था... गजलों की एक नई किताब पूरी हो चुकी थी... नज्म की एक किताब मुकम्मल थी... सिर्फ प्रकाशित करवाना था... फिर आखिर कहां चले गए

"हर दिशा में दिशाविहीनपसरती जाती है वायु...लेकिन एक भ्रमकि बाकी है आयुअभी और जीना है!!!"

हां एक बात और शैलेंद्र निराश नहीं थे, वो हारे हुए नहीं थे, असफल नहीं थे, वो शराबी भी नहीं थे... बल्कि वो जीतने वाले इंसान थे... उनमें अब भी जीजीविषा बाकी थी... उन्होंने बहुत कम उम्र में ऐसे मुकाम को हासिल किया, जो किसी के लिए भी ईर्ष्या पैदा कर सकती है। वर्ना उनमें ये लिखने का साहस कैसे पैदा होता

"होश आया तो मैं इक फैसला करके उठ्ठाऔर बाजार में जा खुद को उछाला मैंनेअपने वो दाम वसूले कि सब हुए हैरांखुद को दौलत की इवज बेच ही डाला मैंनेबाद उस रोज के हर रोज मैं बिकता हूं मगरअपनी कीमत पे मैं हर वक्त नजर रखता हूंकौन क्या दाम चुका सकता हैं मेरे मुझकोकौन कितना है खरीदार, खबर रखता हूंआज हर चीज जहां की है मयस्सर मुझकोआज पहले की तरह जिंदगी बेहाल नहींलाख नश्शा है मगर इतनी खबर है मुझकोआज दुनिया है मेरी, अब मैं फटेहाल नहींअब है मालूम कहां, कैसे निकलता है ये दिनरात छलकाती है मस्ती से भरे जाम कहांसुब्ह किस दर पे दिया करती है पहली दस्तकशाम हर रोज मचलती है सरे-आम कहां"

अब आप खुद सोचिए किसी इंसान में इतना कुछ लिखने की हिम्मत यूं ही नहीं आती... वो इंसान जिसने बचपन में ही अपने मां बाप को खो दिया, वो इंसान जिसने बहुत ही गरीबी में अपने बचपन गुजारे, वो मासूम बच्चा जो भूख से बिलखता हुआ कई दिन बिना खाए पिए सो गया... और एक बार गली में फेंके हुए खाने को पाने के लिए कुत्तों से लड़ पड़ा, वो इंसान जिसने कई बार राह चलते गरीबों को रोजगार के लिए दसियों हजार रुपये थमा दिए... आज भी वैशाली में कई रिक्शा वाला उनके नाम को लेकर अपनी रोजी रोटी चला रहा है...

एक बहुत बडी़ हकीकत ये है कि शैलेंद्र ने कभी भी समझौता नहीं किया... अपने उसूलों से, अपने सिद्धांतों से... उन्होंने जितना इस जग से लिया, उतना उसे वापस लौटा दिया... और ये सब करने वाला इंसान हमेशा एक चीज की कमी महसूस करता रहा... उसे वो चीज कभी नसीब नहीं हो पाई... वो मां की कमी को हमेशा महसूस करता रहा... अपनी मर्मस्पर्शी कविता मां में वो लिखते हैं... "मां! अगर तुम होती मेरी तन्हाईमैं हमेशा ही तुम्हारी गोद में सर रखकर सोतातुम दुलारती मुझे, सुनाती जली कटीऔर जन्मों से निरंतर जगते चले आ रहेतुम्हारे इस शापित बेटे को दो चार पलों कीनींद हो जाती मयस्सर"शैलेंद्र न सिर्फ एक बेहतरीन पत्रकार थे, बल्कि नेक इंसान भी थे... कभी कभी लोगों के साथ उनके मतभेद जरूर होते थे, लेकिन उन्हें अपना बनाने की हुनर भी पता थी। मैं तो उन्हें यही कहना चाहूंगा कि शैलेंद्र आप हमेशा अपनी लेखनी के जरिये... हम सब की यादों में जिंदा रहेंगे... चलते चलते आपको उनकी लिखी आखिरी गजल भी सुनाना चाहूंगा... जो उन्होंने अपनी मौत से ठीक एक हफ्ते पहले सुनाई थी...इसमें उन्होंने जिंदगी को अलविदा कहने की बात भी कही थी

"सालों तक रोया कि मेरे साथ है धोखा हुआध्यान से देखा तो पाया कुछ नहीं ऐसा हुआदर्द की एक बूंद थी, कतरा बनी और बह गईदिल ने खामोख्वाह समझा जख्म फिर गहरा हुआरात को कोपल से पैदा हो रही थी रोशनीरात गहरी थी, न समझा इस कदर ये क्या हुआबस महज इक बात थी भारी पड़ी संबंध पररिश्तों के जंगल में तबसे हूं यूं ही भटका हुआजिंदगी बाहों में भरकर अलविदा तो कह गईवो मुसाफिर अब तक है मोड़ पर बैठा हुआ"अलविदा शैलेंद्र..... अलविदा....

हरीश चंद्र बर्णवाल एसोसिएट एक्जक्यूटिव प्रोड्यूसर, IBN7hcburnwal@gmail.com9810570862

रविवार, 31 मई 2009

गुरुवार, 7 मई 2009

जिल्लतों में कब तक घुटते रहें

जिल्लतों में कब तक घुटते रहें
वो जो चाहें तभी तक रूठते रहें
जिंदा हैं पर नहीं है कोई जिंदगी
तेरी राहों में कब तक भटकते रहें

कौन खुश है, किसको रूसवा करूं
कैसे अपने अहम को जुदा मैं करूं
मन मारकर मनाने का क्या फायदा
और चाहूं तो किसका सजदा करूं

अब आईने में खुद को देखता नहीं
खुद पर भी भरोसा होता ही नहीं
मैं उसी भीड़ का बेनाम शख्स हूं
जिनकी रगों में खून खौलता नहीं

दूसरों के सांचे में ढलता रहा
जमाने के रस्मों में रिसता रहा
ये न सोचा कि आगे क्या होगा
खुद अपनी नजर में गिरता रहा

सोचता हूं कभी तो संवर जाऊंगा
या खुद ही कभी तो बिखर जाऊंगा
सब यूं ही चलने का क्या फायदा
मार दूंगा या खुद ही मर जाऊंगा

मंगलवार, 14 अप्रैल 2009

> 29 पत्रकारों को रामनाथ गोयनका पुरस्कार

> 29 पत्रकारों को रामनाथ गोयनका पुरस्कार http://mediakhabar.com/topicdetails.aspx?mid=66&tid=909
> चुनावी विज्ञापन : मीडिया जगत के लिए संजीवनी बूटी http://mediakhabar.com/topicdetails.aspx?mid=63&tid=910
> टोटल टीवी के सर्वेक्षण में कांग्रेस सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी http://mediakhabar.com/topicdetails.aspx?mid=59&tid=911
> जूता, कांग्रेस और अपराध बोधhttp://mediakhabar.com/topicdetails.aspx?mid=113&tid=907
> बाजार में संचार प्रौद्योगिकी और उसके नकारात्मक प्रभावhttp://mediakhabar.com/topicdetails.aspx?mid=33&tid=889
> टीआरपी का नया सितारा - वरुण गाँधी http://mediakhabar.com/topicdetails.aspx?mid=60&tid=906
>फिजी में मीडिया पर सेंसर http://mediakhabar.com/topicdetails.aspx?mid=42&tid=904
> एडमिशन एलर्ट - माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय http://mediakhabar.com/topicdetails.aspx?mid=39&tid=905

शनिवार, 28 मार्च 2009

किस मुंह से धोनी के पास जाओगे

कहते हैं टीम इंडिया में एक से बढ़कर एक हीरा है। कहते हैं इस समय की इंडियन क्रिकेट टीम देश की सर्वश्रेष्ठ क्रिकेट टीम है। कहते हैं भारतीय क्रिकेट का बैटिंग लाइन अप इससे बढ़िया कभी नहीं रहा। बॉलिंग में भी ऐसी वेरायटी कभी नहीं रही। ये टीम दुनिया की किसी भी टीम का कहीं भी मुकाबला कर सकती है। इस टीम में क्रिकेट के सभी फॉर्मेट में जीतते रहने का हुनर है। इसे सिर्फ जीतना आता है। हारना तो बस समझ लीजिए कि जब ये टीम चाहेगी तभी हारेगी।
पर ये क्या...??? नेपियर में तो पूरी टीम ही नप गई... क्या बैटिंग, क्या बॉलिंग और क्या फिल्डिंग! हर मोर्चे पर इतना लिजलिजापन... क्या हो गया टीम इंडिया को... वही सचिन, वही सहवाग, वही लक्ष्मण... द्रविड़... विस्फोटक युवराज भी हैं... मगर सबके सब तीन सौ पहुंचते पहुंचते ही निपट गए... ये भी न सोचा कि कीवियों ने पहाड़ सा रन खड़ा दिया है... इतना ही नहीं जरा बॉलिंग तो देखिए... जहीर, दिल्ली एक्सप्रेस ईशांत शर्मा, टर्बनेटर हरभजन सिंह और संकट मोचक बॉलर युवराज भी टीम में ही हैं... लेकिन सबके सब बेकार... क्या हो गया इस टीम को? कहीं किसी की बुरी नजर तो नहीं लग गई या फिर शनि ग्रह इन पर हावी हो गया है? क्या किसी ने जादू टोना कर दिया?
लेकिन जनाब जरा रुकिए। हकीकत से रूबरू होइये क्योंकि टीम इंडिया के ये सारे धुरंधर भले ही हीरे हों... लेकिन इन्हें परखने वाला जौहरी जो नहीं है टीम में। असल में ये हीरा तभी तक हैं जब इनके साथ धोनी नाम का कोहिनूर हीरा होता है। ये तभी चमकते हैं, जब इन पर धोनी की पॉलिश चढ़ती है। वर्ना ऐसा कैसे हो जाता कि जिस टीम ने पिछले 6 में से 5 मैच जीते हों (वो भी टेस्ट में)... उनके सामने कीवियों ने पहले ही दिन हिमाकत करते हुए 351 रन ठोक दिए और पूरी टीम बेसहारा नजर आती रही।

इसलिए क्रिकेट के दीवानों सुन लो। सचिन के प्रशंसकों अपने दिल को कठोर बना लो। युवराज के समर्थकों जरा होश में आओ। ये समझ लो कि ये सारे क्रिकेटर तभी काम आ सकते हैं... जब इनके दिमाग में धोनी का जादू चलता हो। लेकिन क्या क्रिकेट के मैदान के ये जांबाज धोनी के बिना एक मैच भी नहीं खेल सकते? क्या माही के विजय अभियान को ये एक पल में ही चकनाचूर कर देंगे। अगर ऐसा हुआ तो ये टीम किस मुंह से धोनी के पास जाएगी? लाचार कप्तान सहवाग धोनी से क्या कहेंगे कि जिस तैंतीस साल की अमरगाता को तुमने लिख छोड़ा था... उसे हमने इकतालीस साल के यादगार सफर (सीरीज जीतने का सपना) में तब्दील करने की बजाए धुमिल कर दिया है... इसलिए क्रिकेट के ऐ कर्णवीरों अब भी होश में आए... अब भी दो दिन बचे हैं... कम से जीत न मिले॥ मगर हारकर तो मत आना...
हरीश चंद्र बर्णवाल

मंगलवार, 24 मार्च 2009

ज़ी न्यूज़ की अलका सक्सेना सर्वश्रेष्ठ न्यूज़ एंकर और आजतक की श्वेता सिंह सबसे ग्लैमरस महिला एंकर बनी

हिंदी के समाचार चैनलों में काम करने वाली महिलाओं को केंद्र में रखकर मीडिया खबर।कॉम ने अपने प्रिंट पार्टनर मीडिया मंत्र (मीडिया पर केंद्रित हिंदी की मासिक पत्रिका) के साथ मिलकर पिछले दिनों एक ऑनलाइन सर्वे करवाया। सर्वश्रेष्ठ महिला एंकर और सबसे ग्लैमरस एंकर के अलावा कुल 12 सवाल सर्वे में पूछे गए। यह सर्वे 15 फरवरी से 6 मार्च के बीच हुआ। पुरा परिणाम आप मीडिया ख़बर.कॉम पर पढ़ सकते हैं। लिंक : http://mediakhabar.com/topicdetails.aspx?mid=107&tid=808

गुरुवार, 19 मार्च 2009

लघुकथा - गरीब तो बच जाएंगे...

मंदी की महामारी ने हर तरफ अपना जाल फैला लिया है। किसी कंपनी को कैंसर हो चुका है, तो किसी को एड्स। कर्मचारियों की छंटनी का खतरा हर तरफ मुंह बाये खड़ा है। जेट एयरवेज ने 800 कर्मचारियों को रुखसत क्या किया, लगा पूरे देश में भूचाल आ गया हो। न्यूज चैनल में भले ही ये खबर आम खबरों की तरह आकर चली गई हो, लेकिन फिल्म सिटी में टेलीविजन के बुद्धिजीवी पत्रकारों में बहस छिड़ी हुई थी। महंगी गाड़ियों की कतारों के बीच एक विदेशी गाड़ी के इर्द गिर्द दर्जन भर पत्रकार जमा थे। कार के बोनट पर विदेशी शराब की कई बोतलें, चिकन, चिप्स रखे हुए थे। जाम छलक रहा था, और टेलीविजन पत्रकारों के चेहरे से गंभीरता के रस टपक रहे थे। मुद्दा बड़ा था - इतनी खूंखार मंदी के बाद अब क्या होगा इस देश का।
विदर्भ में हजारों किसानों की आत्महत्या, बिहार- झारखंड में नक्सलियों के मुद्दे पर नाक मुंह बिचकाने वाले इन पत्रकारों को अचानक देश में आई इस मंदी का खतरा नजर आने लगा था। बहस पूरे शबाब पर थी

- “ इस देश को अब कोई नहीं बचा सकता। कहीं इस मंदी से उबरने की सूरत नहीं ” – अपने आप को बुजुर्ग की तरह दिखाने वाले एक कम उम्र के पत्रकार ने कहा
- “ ऐसा बिल्कुल नहीं है, इस मंदी का असर ज्यादा लोगों पर नहीं पड़ा है, देश के 70-80 फीसदी लोग तो इसके बारे में जानेंगे भी नहीं ” – एक चैनल के नये नवेले एंकर ने जवाब दिया, जिन्होंने दलबदलू की तरह तीन साल में चार चैनल बदल लिया है
- “ तो क्या हुआ, ऐसे लोग थोड़ी ने देश में राज करते हैं, ये तो भीड़ है। असल तो कारपोरेट जगत से जुड़े लोग हैं, जैसे आईटी, बैंकिंग, रियल इस्टेट.... मीडिया से जुडे लोग... जो उधार की जिंदगी जी रहे हैं ”... एक बुजुर्ग पत्रकार ने टोका (इस जनाब को मीडिया के लोग तो बुजुर्ग मानते ही हैं, लेकिन ये खुद को उससे भी ज्यादा वरिष्ठ मानते हैं)
- “ सही बात है अब हमारे ही घरवालों को ले लो, उन्होंने अपनी जिंदगी के लिए कोई कर्ज तो लिया नहीं, पहले कमाए, पैसा जमा किया और फिर सामान खरीदा ” – कार के पीछे से किसी पत्रकार की आवाज आई
- “ और हमारी जिंदगी में तो कार, घर हर कुछ उधार पर है ”
- “ वैसे यार ये मंदी से कुछ नहीं होने वाला, वैसे ही इस देश में इतनी गरीबी है कि मंदी वहां तक पहुंच भी नहीं पाएगी ”
- “ यार मंदी से गरीबों का क्या मतलब, इस मंदी में गरीब तो जी जाएंगे, लेकिन अमीरों को कौन बचाएगा ” – व्हीस्की की तीसरी पैग लेते हुए एक पत्रकार ने कहा
- “ हां यार, हां यार ’
- “ सही कहा ”
- “ क्या बात है, गरीब तो बच जाएंगे, लेकिन हमलोगों को कौन बचाएगा ”

नशे की दुनिया में गोते लगा चुके सारे पत्रकार अब तक अपनी अपनी बात ऱखने में लगे थे। सब कोई बोल रहा था। सुन कोई किसी की नहीं रहा था। लेकिन अचानक आखिरी लाइन पर सब अटक गए। और सब एकमत हो गए। बहस खत्म हो चुकी थी। और सब एक दूसरे को चीयर्स कर रहे थे।

हरीश चंद्र बर्णवाल
ASSOCIATE EXECUTIVE PRODUCER, IBN 7

लघु कथा सिर्फ 40 मरे

भारत बांग्लादेश सीमा पर मुठभेड़ जारी थी। हर दिन तीस-चालीस लोगों के मारे जाने की खबर आ रही थी। मीडिया ने भी इस खबर को खूब तवज्जो दिया। एक बार भारतीय लोगों को जानवरों की तरह लकड़ी से बांधकर ले जाए जाने की तस्वीर जब कुछ स्थानीय अखबारों में छपी। तो न्यूज चैनलों के लिए मानो भरा पूरा मसाला ही मिल गया। इस खबर को कई दिनों तक दिखाते रहे... और लोगों के भीतर राष्ट्र भावना जगाने की कोशिश करते रहे। धीरे-धीरे इस खबर का इतना पोस्टमार्टम कर दिया कि कहने को कुछ बचा ही नहीं। यहां तक कि इसकी तुलना भारत पाकिस्तान और भारत चीन युद्ध से भी कर चुके थे। बांग्लादेश को 1971 की जंग के दौरान मदद करने की दुहाई का एकालाप भी कर चुके थे। हालांकि इस समस्या का तो कुछ हल नहीं हुआ, लेकिन जहां अखबारों के किसी कोने में अब भी छोटी मोटी खबरें छप रही थीं, वहीं टेलीविजन न्यूज चैनलों पर यकायक ये खबरें चलनी बंद हो गईं।
कुछ दिनों बाद ठीक उसी समय एसाइनमेंट पर प्रिंट के एक बड़े पत्रकार कमल ने ज्वाइन किया था। कमल पहली बार किसी टेलीविजन न्यूज चैनल की मीटिंग में शामिल थे। उन्होंने मीटिंग के दौरान उत्साहित होकर बताया कि बहुत बड़ी खबर है। भारत बांग्लादेश सीमा पर फिर मुठभेड़ हुई है। इस बार भी 40 लोग मारे गए... इतना सुनते ही आउटपुट के सीनियर प्रोड्यूसर रमाकांत ने जवाब दिया, सिर्फ 40 मरे... और ये बड़ी खबर है... ये तो हम पहले भी चला चुके हैं... इसमें नया क्या है। जब सौ या डेढ़ सौ लोग मर जाएं तब बताइयेगा।

लघु कथा - तीन गलती

देश के एक बड़े अंग्रेजी अखबार में शालिनी की आत्महत्या की खबर बड़े-बड़े अक्षरों में छपी थी। इंदौर में रहने वाली 16 साल की शालिनी की आत्महत्या उतनी बड़ी खबर नहीं थी, जितनी बड़ी उसके आत्महत्या की वजह। टेलीविजन न्यूज चैनलों पर दिखाए जाने वाले महाविनाश की खबर देखकर वो परेशान हो चुकी थी। इसी उधेड़बुन में उसने आत्महत्या कर ली थी। हालांकि न्यूज चैनल पहले भी दो-तीन बार महाविनाश की चेतावनी दे चुके थे, लेकिन इस बार महामशीन को लेकर महाविनाश का हो हल्ला कुछ ज्यादा ही जोर शोर से मचा रहे थे। ऐसे में विनाश की पहली झलक नजर आने लगी थी। फिर क्या था सारे पत्रकार पहुंच गए इंदौर में शालिनी के घर। पूरा मजमा लगा हुआ था। जैसे ही शालिनी के पिता घर से बाहर निकले। पत्रकारों ने सवालों के तोप गोले दाग दिए

- शालिनी ने क्यों आत्महत्या की?
- क्या शालिनी वाकई डरी हुई थी?
- क्या ये आत्महत्या महाविनाश का असर है?
- क्या शालिनी की मौत महाविनाश की पहली कड़ी है?

शालिनी के पिता ने पहले तो सारे पत्रकारों को घूरते हुए गुर्राया... औऱ फिर अचानक संयमित होकर कहा कि शालिनी ने तीन गलती की। पहली गलती तो ये थी कि मना करने के बावजूद उसने न्यूज चैनल देखा। दूसरी गलती ये थी कि इसे सच मान लिया। और तीसरी और आखिरी गलती ये थी कि आखिर तक वो इन तथाकथित चैनलों को न्यूज चैनल ही मानती रही।



हरीश चंद्र बर्णवाल

लघुकथा मायूसी

न्यूज रूम में मायूसी छाई हुई थी। वो भी सिर्फ एक हमारे चैनल के लिए ही क्यों, बल्कि इंडस्ट्री के तमाम बाकी नये न्यूज चैनलों के लिए बुरा दौर जो चल रहा था। कोई बड़ी खबर ही नहीं आ रही थी। चूंकि टेलीविजन इंडस्ट्री के लिए न्यूज चैनल बिल्कुल नए नए थे। इसलिए झगड़ा टीआरपी का नहीं था, बल्कि अपने अस्तित्व को बनाए रखने का था। लोग न्यूज चैनल देखें, इसके लिए जरूरी था कि बड़ी घटनाएं होती रहें। टेलीविजन के नये नवेले पत्रकारों में भी काम करने का जज्बा पूरे उफान पर था। पर हर रोज कहां से कोई बड़ी घटना हो, जिसे बढ़ा चढ़ाकर पेश किया जाए। कोई खबर आए भी तो वो दो-तीन मिनट से ज्यादा देर टिकती भी नहीं। ऐसे में पिछले कई दिनों से न्यूजरूम में मनहूसी छाई हुई थी।
हफ्ते भर बाद एक दिन अचानक न्यूजरूम में हलचल शुरू हो गई। एसाइनमेंट से खबर आई कि अमृतसर में आतंकवादियों ने एक प्लेन हाइजैक कर लिया है। फिर क्या था। नये नये टेलीविजन न्यूज चैनल के सारे लखटकिया पत्रकार (हजारों-टकिया पत्रकार भी शामिल हैं, लेकिन अखबार के पत्रकारों के सामने खुद को लखटकिया ही मानते थे) इस खबर पर टूट पड़े। उन्हें ये पता था कि इस खबर में काफी दम है। देश के एलिट क्लास के लिए ये एक बहुत बड़ी खबर है। दरअसल इससे पहले आईसी 814 विमान के अपहरण के दौरान टेलीविजन न्यूज चैनलों की लोकप्रियता में भारी इजाफा हुआ था। तमाम न्यूज चैनलों की टीआरपी भी एटरटेनमेंट चैनलों के मुकाबले काफी बढ़ी थी। ऐसे में सारे पत्रकार युद्धस्तर पर इस खबर पर पिल पड़े।
कोई ब्रेकिंग न्यूज लिखने में लगा था। तो कोई एंकर को घटना की जानकारी देने में। कोई प्लेन हाइजैक की भयावहता को अपनी स्क्रिप्ट की धार में पिरो रहा था, तो कोई इस घटना के बारे में तफ्सील से पता करने में। जूनियर पत्रकारों में कोई अमृतसर का फुटेज निकाल रहा था तो कोई आईसी 814 विमान का फुटेज। एक शख्स तो बकायदा आईसी 814 विमान अपहरण कांड के जरिये ये लिखने में जुटा था कि विमान अपरहण की ये घटना कितनी बड़ी है या फिर हो सकती है।
इस खबर को ताने हुए करीब 2-3 मिनट ही हुए होंगे कि अचानक एसाइनमेंट के सीनियर एडिटर नवची चीखते हुए आए और आउटपुट से कहने लगे कि ये खबर ड्रॉप कर दो। ये सुनते ही आउट पुट के तमाम लोगों के मुंह से एक चीख निकली – “क्या हुआ, क्यों ड्रॉप कर दें।“ फिर अचानक नवची ने आउट पुट के सीनियर एडिटर पिकलू की तरफ देखते हुए कहा “कोई अपहरण नहीं हुआ है, बल्कि खुद सेना के जवान मॉक एक्सरसाइज कर रहे हैं। दरअसल वे देखना चाहते थे कि अगर इस बार अपहरण हुआ तो वो कैसे हेंडल करेंगे।“ इसे सुनते ही पिकलू ने आउट पुट के लोगों को सारे काम रोकने के आदेश दिए... और कहा “इसे क्या दिखाएं… साला ये भी टुच्ची खबर निकली। अब इसमें भी कोई दम नहीं।“ एक बार फिर न्यूजरूम में मायूसी छा गई।


हरीश चंद्र बर्णवाल
hcburnwal@gmail.com
IBN7

गुरुवार, 19 फ़रवरी 2009

आखिरी चेहरा - - हरीश चंद्र बर्णवाल


मिस्टर कुमार टेलीविजन के बड़े पत्रकार हैं। इनका मार्केट इन दिनों अप है... टेलीविजन की भाषा में बोलूं तो इनकी टीआरपी काफी ऊपर चल रही है। लेकिन मिस्टर कुमार को इसके लिए कड़ी मेहनत करनी पड़ती है। इन्हें अपना चेहरा कई बार बदलना पड़ता है। लेकिन इससे इन्हें कोई गुरेज नहीं। कहानी सुननी हो तो इनके चेहरे देखने जरूरी हैं

पहला चेहरा - बास के सामने घिघियाहट वाला चेहरा... ऐसा चेहरा जिससे लगे कि टेलीविजन में सबसे ज्यादा दलित, शोषित और काम के बोझ से लदे पत्रकार वही हों... सारा काम इन्हें ही करना पड़ता हो ... अगर ये न रहें तो चैनल का एक भी दिन काम चल ना पाए... मिस्टर कुमार कोशिश करते हैं कि ये चेहरा न्यूजरूम में कोई न देख ले, केवल बास ही देखें

दूसरा चेहरा – ऐसा चेहरा, जिसे देखते ही न्यूज रूम के सारे पत्रकार थर्राने लगें। मिस्टर कुमार का अंदाज इसमें काबिले-तारीफ है। पत्रकारों में खौफ भरने के लिए वो न्यूजरूम के लीडर पर ही निशाना साधते... अगर लीडर ही ढेर हो जाए... तो बाकी टूटपुंजिये पत्रकार वैसे ही उनके पैरों पर लुढ़कने को तैयार रहते... जूनियर पत्रकारों पर निशाना साधने के लिए उन्हें विशेष मेहनत करने की जरूरत भी नहीं पड़ती। कभी शब्द पर ही टोककर फटकार लगा देते... मसलन फैसला लिख दिया तो कहते निर्णय क्यों नहीं लिखा। निर्णय लिखा होता तो कहते फैसला क्यों नहीं लिखा। कभी खबर पर टोक देते कि इस खबर को पहले क्यों लिया... बाद में क्यों नहीं... या फिर अगर कुछ नहीं मिलता तो ये जरूर कहते कि... आप सिर्फ दिहाड़ी कर रहे हैं... कुछ नया नहीं कर रहे... बस वही पुराने ढर्रे पर चल रहे हैं। मिस्टर कुमार को ये चेहरा विशेष पसंद है। जहां भी मौका मिलता है, वो इसे आजमाने से नहीं चूकते

तीसरा चेहरा – ये चेहरा भी प्रिय है... ये महिला पत्रकारों के सामने दिखने वाला चेहरा है। इसमें हर वक्त वो कमर मटकाते हुए या छेड़छाड़ करते हुए दिख जाते। जूनियर लड़कियां उन्हें स्मार्ट, क्यूट और भी न जाने रीति काल के अलग-अलग उपमाओं से पुकारतीं। ये चेहरा आप कभी भी देख सकते हैं... न्यूज रूम में, बाहर चाय के ढाबे में... बास न हो तो केबिन में...

चौथा चेहरा – कभी टीवी में सूरत दिखाने की नौबत आ जाए, तो मिस्टर कुमार बड़े ही धीर गंभीर लगते... ऐसा लगता मानो सारे जहां की मुसीबत इन्होंने अपने गले में बांध ली हो... टुच्ची घटनाओं में भी देशभक्ति पैदा करना हो... तो कोई इनसे सीखे...

पांचवां चेहरा – वैसे तो मिस्टर कुमार काम करते हुए कम दिखेंगे, लेकिन अगर बास आसपास फटक रहे हों तो कुमार किसी न किसी पत्रकार को समझाते हुए जरूर दिख जाएंगे... ऐसा चेहरा मानो कोई बाप अपने मासूम बच्चे को कुछ समझा रहा हो... भई बास इस चेहरे को देखकर मिस्टर कुमार से बहुत इम्प्रेश हैं....

मिस्टर कुमार इन सभी चेहरों को कभी भी पल भर में बदल सकते हैं। इन सभी चेहरों का लबादा ओढ़ना उन्हें बेहद पसंद है। लेकिन कुमार इन दिनों बहुत परेशान हैं... क्योंकि उन्होंने अपना एक आखिरी चेहरा भी देखा है... देखा क्या है ... बल्कि कहिए किसी ने दिखाया है... इसके बाद अब उन्हें अपने हर चेहरे से नफरत होने लगी है... जानना चाहेंगे क्यों...

एक लंबी कहानी है... जो मिस्टर कुमार के साथ बीत रही है... लेकिन हम चंद शब्दों में आपको बताएंगे... दरअसल कुमार अपना चेहरा कितना बदलें... आखिर वो भी तो इंसान हैं... उस पर भी घर में चेहरा बदलते रहना आसान भी नहीं... भले ही उन्हें गुर्राने वाला दूसरा चेहरा पसंद हो...

एक बार घर में उनका मन नहीं लग रहा था... ऐसे में कुमार ने अपनी मासूम बिटिया को बुलाया कि उससे जरा खेले... बतियाएं... मन बहलाएं...लेकिन बिटिया आने को तैयार ही नहीं... मिस्टर कुमार के बार बार चीखने पर न्यूजरूम के किसी पत्रकार की तरह उनकी बीवी मासूम बिटिया को खींचतान करके बाप के पास आई... लेकिन बिटिया खेल ही नहीं रहीं... कुमार को गुस्सा आया... पूछ बैठे – “ क्या बात है बिटिया, मुझसे नहीं खेलना चाहती ”

बेटी ने बड़ी ही मासूमता से डरते डरते जवाब दिया “ पापा कैसे खेलें... आपके चेहरे को देखते ही डर लगता है ”

मिस्टर कुमार अवाक्... उन्हें पता ही नहीं चला कि वो दफ्तर को घर भी लेकर जाने लगे... इसलिए उन्होंने ये चेहरा अब तक नहीं देखा था... क्या आपने देखा है ?