गुरुवार, 7 मई 2009

जिल्लतों में कब तक घुटते रहें

जिल्लतों में कब तक घुटते रहें
वो जो चाहें तभी तक रूठते रहें
जिंदा हैं पर नहीं है कोई जिंदगी
तेरी राहों में कब तक भटकते रहें

कौन खुश है, किसको रूसवा करूं
कैसे अपने अहम को जुदा मैं करूं
मन मारकर मनाने का क्या फायदा
और चाहूं तो किसका सजदा करूं

अब आईने में खुद को देखता नहीं
खुद पर भी भरोसा होता ही नहीं
मैं उसी भीड़ का बेनाम शख्स हूं
जिनकी रगों में खून खौलता नहीं

दूसरों के सांचे में ढलता रहा
जमाने के रस्मों में रिसता रहा
ये न सोचा कि आगे क्या होगा
खुद अपनी नजर में गिरता रहा

सोचता हूं कभी तो संवर जाऊंगा
या खुद ही कभी तो बिखर जाऊंगा
सब यूं ही चलने का क्या फायदा
मार दूंगा या खुद ही मर जाऊंगा

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