लेखक
– हरीश चंद्र बर्णवाल
कहानी
-
काश मेरे साथ भी बलात्कार होता!
अच्छा
हुआ। हां, अच्छा हुआ कि मेरा बलात्कार हुआ। सब ऐसा ही कहते हैं। अब सब मुझको मानते
भी हैं। मेरा सबसे अच्छा दोस्त अमित भी तो ऐसा ही कहता है। मोनू, रवि, श्वेता,
चंचल, आशीष सब अमित के साथ मेरे घर आए हैं। ये सब मुझे पहले खेलने तक नहीं देते
थे। मुझे चिढ़ाते थे। लेकिन अब मैं उन्हें चिढ़ाऊंगी। खूब आनंद करूंगी। अब सभी
मुझे प्यार करते हैं। टॉफी भी खूब लाकर देते हैं। अगर बलात्कार न होता तो स्कूल भी
जाना पड़ता। होमवर्क तो किए नहीं थे। मार भी खानी पड़ती। साथ ही सर कान पकड़कर मेज़
पर खड़ा कर देते। अब कुछ दिन स्कूल नहीं जाना पड़ेगा। मम्मी ही तो कह रही थी कि
पंद्रह-बीस दिनों तक स्कूल नहीं जाने देंगे क्योंकि अभी वहां मेरी ही चर्चा चल रही
होगी। पंद्रह-बीस दिनों में मामला ठंडा पड़ जाएगा। पापा भी तो मान गए हैं, और...।
अन्तर्मन में खोयी छठी कक्षा की ग्यारह
वर्षीय प्रिया अपने मन को टटोल रही थी या शायद अपने अस्तित्व को ढूंढने का प्रयास
कर ही थी। बीच में ही टोकते हुए उसकी कक्षा का रवि कहता है
“प्रिया, तुम हमसे बात
क्यों नहीं करती?”
“हम भी तो इससे बात
नहीं करते थे।” बीच में मासूमियत से
अमित कहता है।
अमित की बात सुनकर प्रिया की
एकाग्रता टूट जाती है। बहाने से बनाकर कहती है –
“मैं स्कूल के बारे में सोच रही थी। नहीं
जाऊंगी तो सर डांटेंगे, है न! ”
“हां, पूरे स्कूल में
सब सर और मैडम तुम्हारी ही बात कर रहे थे।”
आशीष
शुष्क भाव से बोलता है।
“अरे! नहीं बुद्धू सर इसलिए थोड़ी न चर्चा कर
रहे थे। वो तो इसके बलात्कार पर बात कर रहे थे। अंजुम मैडम तो कह रही थीं कि
प्रिया अभी कुछ दिन स्कूल नहीं आयेगी। इसलिए हम लोगों से इससे मिलने को भी कहा।” श्वेता आशीष की बातों
को काटती है।
“हां, वो तो है।” आशीष भी सिर हिलाकर स्वीकृति देता है।
“सच में!” प्रिया आश्चर्य से बोल पड़ती है।
स्वतःप्रेरित यह
स्वीकारोक्ति प्रिया में आत्मसंतोष पैदा करती है। वैसे बचपन का यह उतावलापन है, जो
बच्चों में एक-दूसरे के साथ प्रतिस्पर्धा उत्पन्न करता है। इस उम्र में बच्चे
वृक्ष की प्रत्येक टहनी को छूने के लिए अपनी पूरी शक्ति लगा देते हैं। बच्चों के
समाज में सबसे अलग प्रिया में जरूर कुछ ऐसा गुण रहा होगा जो उसे एक व्यक्तित्व
बनाता है। एक ऐसा व्यक्तित्व जो अपने आप में पूर्ण है, अनोखा है, किन्तु पहचान के
अभाव में संपूर्ण नहीं है। आज पूरी बालमंडली के सामने प्रिया नये रूप में है
क्योंकि उसका बलात्कार हुआ है। वह स्कूल में, अखबार में तथा पूरे माहौल में छायी
हुई है।
बच्चों में एक
दूसरे से जलने की प्रवृत्ति होती है, जिसके आगे ज्वालामुखी के लावे भी कमजोर हैं,
किन्तु बच्चों की जलन का कोई सार नहीं। वह कभी पल भर में आसमान से उच्चमंडल को छू
सकता है तो सागर की गहराइयों तक भी जा सकता है। यह एक आग का दरिया है जहां सब कुछ
जलता दिख रहा है, मगर कुछ जलता नहीं। क्षोभमंडल में होने वाले परिवर्तन की तरह यह
क्षणिक है, किन्तु हर कोई इस क्षण को जीना चाहता है, क्योंकि यह क्षण भी अनंत तक
फैला है।
प्रिया गदगद है, क्योंकि
वह धुरी बनी हुई है जिससे आसपास का सारा वातावरण उसी के इर्द-गिर्द घूम रहा है।
खासकर अपने दोस्तों के सामने चर्चा का विषय बनना कम बड़ी बात नहीं है। वो भी ऐसा
विषय जिसमें सबकी उत्सुकता दौड़ रही है। सबका मन यह जानने का प्रयास कर रहा है कि
क्यों प्रिया आज सबसे
ज्यादा
प्यार पा रही है? बलात्कार क्या है? प्रिया के साथ ही क्यों हुआ? मेरे साथ क्यों नहीं? तरह-तरह के ऐसे सवाल जिन पर किसी का वश
नहीं... यही तो बचपना है, जहां से आश्चर्य के तीर छूटते जाते हैं। निश्चित ही वह
किसी छाया को भेदते हैं, किन्तु वह छाया अवश्य ही प्रत्यास्था के गुणों से प्रेरित
है जो बार-बार भेदित होने पर भी पुनः वैसी ही स्थिति में आ जाती है।
अपने वर्चस्व को कायम रखने के
लिए प्रिया अपने दोस्तों को कहती है – “कल मेरे मामाजी आए थे। वे मेरे लिए
फुटबॉल भी लाए, जिससे मैं अब खूब खेलूंगी।”
“अच्छा!” सबने एक साथ आह भरी।
“वो भी तीन रंगों
वाला। लाल, हरा और नीला।” प्रिया ने जोर देकर
कहा।
दरअसल प्रिया
अपने दोस्तों के मन को टटोलने का प्रयास कर रही थी। शायद मित्रों की उत्सुक
निगाहों को वह भांप चुकी थी। इसलिए तो अपनी जीत को पुख्ता करने के लिए वह रंगों का
भी सहारा लेती है। सच भी था, बालमंडली पिछड़ रही थी। किन्तु बच्चों के अपने तर्क
होते हैं, जिनका दोहरा चरित्र नहीं होता, साथ ही असीम होते हैं। पूरी बालमंडली को
चुप देख मोनू साहस बटोर कर कहता है –
“हमारे पास भी तो
फुटबॉल है।”
“लेकिन तीन रंगों वाला
तो नहीं?” प्रिया ने तुरंत कहा।
“तो क्या हुआ? हमें तो खेलने से मतलब है।”
रवि
मोनू के समर्थन में कहता है। अब प्रिया की दाल नहीं गल रही थी। फिर भी थोड़ी देर
तक सोचने के बाद बोल पड़ी –
“ठीक है, लेकिन
तुम्हारी फुटबॉल तो पुरानी हो चुकी। अब तो ज्यादा उछलती भी नहीं। साथ ही पैरों में
चोट भी लगती है।” प्रिया ने ईंट का
जवाब पत्थर से दिया।
अब किसी को भी कोई उत्तर न
सूझा। अंततः बालमंडली प्रिया की बात को स्वीकार करते हुए अपना पराजय भी स्वाकीर कर
लेती है। द्वन्द्व का यह रूप वस्तुतः ईर्ष्या है जो बचपन में स्वार्थ की प्रवृत्ति
के सूक्ष्मतम रूप में दिखाई पड़ता है। यह एक मानसिकता है... पवित्र मानसिकता, जहां
स्वार्थ का अपना स्थान होता है। ऐसा स्वार्थ जो मानव में बचपन से अपना रूप बदलता
हुआ जवानी में स्पर्धा तथा बुढ़ापे में संतोष का रूप ले लेता है। तीनों रूपों में
क्रिया-प्रतिक्रिया का संबंध घनिष्ठ होता है क्योंकि भय ही आस्था होती है जो
ईर्ष्या में अलगाव की, स्पर्धा में पिछड़ने की तथा संतोष में सामंजस्य की होती है।
स्वाभाविक है इसकी प्रतिक्रिया में एक भय यह भी था –
“तुम मुझे तो खेलने
नहीं दोगी?” मोनू सहज भाव से कहता
है क्योंकि वह सोचता है कि उसके साथ यह होगा या होना चाहिए। दरअसल मानव का
प्रत्येक रूप में यह गुण है कि वह विषम परिस्थियों में अपने साथ ठीक उसी प्रकार के
सुलूक की आशा करता है जैसा उसने दूसरे के साथ उसी परिस्थिति में किया है। यह मानव
का उच्चतम गुण है। जो मनुष्य इसे जिस अवस्था में जान लेगा, उसी समय संपूर्ण हो
जाएगा।
प्रिया सोचती
है कि सारी मंडली तो पराजित हो गई। अब वह उन सबों को खूब चिढ़ाएगी। खासकर मोनू को,
क्योंकि फुटबॉल तो उसी के पास है तथा वही मुझे खेलने नहीं देता था, किन्तु तभी
प्रिया के मन में दया की भावना जाग उठती है। सच ही है कि विजय का एक रूप सहानुभूति
भी होता है। प्रिया कहती है –
“क्यों नहीं? हम सब मिलकर खेलेंगे।” प्रिया सोचती हुई दार्शनिक अंदाज में
कहती है मानों वह अन्य बालकों की तरह तुच्छ मानसिकता नहीं रखती।
“लेकिन हम लोग तो
तुम्हें खेलने नहीं देते थे?” मोनू आश्चर्य से कहता
है।
“कोई बात नहीं।” प्रिया बोल पड़ती है।
शायद ये नारी चरित्र का समन्वित
चेहरा है जिसमें अधिकारपूर्ण सामंजस्य का समावेश है, तभी तो प्रिया मोनू के खेलने
को भी स्वीकार कर लेती है। साथ ही वह दोस्तों को फुटबॉल दिखाने के लिए उठती है।
तभी उठने के प्रयास में वह नीचे गिर पड़ती है और उसके मुंह से आह निकलता है।
उसे उठाने के लिए मोनू, अमित
और श्वेता आगे बढ़ते हैं कि तभी मम्मी आ जाती है और प्रिया को देखकर – “अरे! क्या हुआ, चोट
तो नहीं लगी?”
“कुछ नहीं मम्मी,
फुटबॉल लेनी थी।” प्रिया संभलती हुई मम्मी
को देखकर कहती है।
“तो मुझे कह देती।
डॉक्टर ने तुम्हें आराम करने को कहा है, न!”
प्रिया अपने दोस्तों
तथा मम्मी के सहारे उठती है। मम्मी फुटबॉल देकर चली जाती है। प्रिया फुटबॉल दिखाती
है पर मोनू उसे अपने हाथ में ले लेता है और उसी में तल्लीन हो जाता है क्योंकि
मोनू का क्षणिक स्वार्थ पूरा होता है, किन्तु फिर एक जिज्ञासा। अमित पूछता है –
“प्रिया तुम्हें
डॉक्टर ने आराम करने को क्यों कहा है?”
“मेरा बलात्कार हुआ है
न!” प्रिया तुरंत जवाब
देती है। एक पूर्वनिर्धारित जवाब जो आने वाले हर प्रश्न का उत्तर हो, किन्तु हर
उत्तर के साथ सौ प्रश्न भी होते हैं और अब तो सब्र भी नहीं।
“बलात्कार क्या होता
है?” – अमित ने पूछा।
एक गहरी जिज्ञासा
मानो सारा राज़ खोलकर जीवन की प्रत्येक गुत्थियों को सुलझा लेना चाहता हो।
“बलात्कार तुम्हें
नहीं मालूम?” श्वेता ने बीच में ही
टोका।
“नहीं?” सबने एक साथ कहा।
“तुमलोगों को पता नहीं, स्कूल में रजत सर
ने किरण मिस का बलात्कार किया था। मैं भी वहीं थी क्योंकि मिस से मैं अपनी होमवर्क
की कॉपी चेक करवाकर लौट रही थी। तभी रजत सर मिस के कमरे में दाखिल हुए। कुछ देर
बाद अंदर से मिस की ज़ोर से आवाज़ आयी। सब सर और मैडम वहां दौड़ पड़े। मैंने देखा,
सर किरण मिस को कसके पकड़े हुए थे। बाद में सर को पुलिस पकड़कर ले गई।”
“अच्छा!” सबने एक साथ कहा।
फिर
एक जिज्ञासा जिसमें अनंत जिज्ञासा – “तो सर प्रिया के घर भी आये थे,” प्रिया को देखकर आशीष पूछता है, “तुम्हें भी कसके पकड़े थे क्या?”
“नहीं, सर नहीं आये थे
हमारे घर।”
एक
छुपा हुआ रहस्य। आखिर कुछ अलग है यह बलात्कार, तभी तो प्रिया फिर से अपने को अलग
महसूस करती है उस मंडली से, जहां सभी अनभिज्ञ हैं। केवल प्रिया सब कुछ जानती है।
“तब बलात्कार कैसे हुआ?” अमित पूछता है।
मोनू
अभी तक फुटबॉल से ही खेल रहा था। किन्तु स्वार्थ का रूप ऐसा है कि नज़र सबकी रहे
किन्तु अधिकार किसी एक का। इसमें अगर किसी की नज़र नहीं तो अधिकार की भावना शिथिल
पड़ जाती है। फुटबॉल पर चूंकि किसी की नज़र नहीं थी तो मोनू का स्वार्थ भी बदल
जाता है। सब प्रिया को ध्यानपूर्वक सुन रहे थे। मोनू भी उसी में अपना स्वार्थ
ढूंढने का प्रयास करता है। प्रिया कहती है –
“मेरा बलात्कार बगल
वाले रमण अंकल ने किया।”
मोनू की जिज्ञासा अब
शुरू हो जाती है और कैसे-क्या का सिलसिला शुरू हो जाता है।
एक ऐसा
प्रारंभ जहां से सारे भेद खुल जाएंगे। प्रत्येक प्रश्न अपने आप में कल्पना है,
आकाश है और सृष्टि तक पहुंचने की एक राह है। सच तो यह है कि सृष्टि की रचना करने
वाले ईश्वर ने बच्चों के रूप में एक नये ईश्वर की रचना की है जिसमें सृजन की अपार
संभावनाएं हैं, जिसका अपना संसार होता है... जहां कुछ भी अर्थ-अनर्थ नहीं,
सत्य-झूठ नहीं, शाश्वत नहीं... स्वीकार हो सकता है। वह इसलिए कि तर्क-कुतर्क के
सारे मार्ग खुले होते हैं। प्रिया क्रमशः बोलती चली जाती है -
“परसों मेरे मां-पापा
नानी के घर गए थे, एक दिन के लिए। मुझे नहीं ले गए।” अब
प्रिया की आवाज़ भारी होने लगती है। फिर भी वह बोलती है –
“स्कूल से आने के बाद
जब मैं घर आई तो रमण अंकल ने बताया था। मुझे वे अपने घर ले गये। वे बोल रहे थे कि
मैं बहुत जिद्दी हूं न! इसलिए बिना बताये
मां-पापा हमें छोड़कर एक दिन के लए नानी के घर गये हैं।”
बीच
में दोस्तों ने मत व्यक्त करने चाहे या नई प्रकार की जिज्ञासा प्रकट करनी चाही।
किन्तु संभवतः प्रिया इन प्रश्नों से भिज्ञ थी। अतः धाराप्रवाह बोलती गई –
“स्कूल से आने के बाद
मैं बहुत रोई। तब अंकल मुझे पार्क ले गये। वहां मुझको घुमाये। आइसक्रीम खिलाई। फिर
रात को चॉकलेट भी दिये।”
तभी प्रिया की मम्मी
कमरे के अंदर प्रवेश करती है। सभी सतर्क हो जाते हैं, मानों कोई चोरी पकड़ी गई हो
या फिर ऐसा भेद खोला जा रहा है जिसे प्रिया की मम्मी को नहीं बताना है। मम्मी
प्रिया को दवा खिलाती है और उसके दर्द के बारे में पूछती है। प्रिया इस प्रकार सिर
हिलाकर उत्तर देती है कि उसकी मम्मी के साथ-साथ शायद वह भी न समझ पाई हो। परंतु
मम्मी के चले जाने के बाद -
“क्या रमण अंकल ने
तुम्हें जोर से पकड़ा था, जो अभी भी दर्द है?”
श्वेता
ने पूछा।
“अरे बुद्धू, मेरा
बलात्कार दूसरा है, सर वाला नहीं।”
“अच्छा!” श्वेता ने जिज्ञासा
प्रकट की।
परंतु इसके बाद प्रिया कुछ
बोली नहीं। वातावरण बिल्कुल शांत पड़ गया। नीरवता ने पल भर में ही चढ़ते उफान को
धूमिल कर दिया। प्रिया की शुष्क आवाज अब घरघराने भी लगी। बच्चे शायद देर तक किसी
विजय को सुरक्षित नहीं रख पाते। प्रिया के साथ भी कुछ ऐसा ही था। खासकर जब प्रिया
को यह भी पता नहीं कि उसकी जीत का मर्म क्या है। वो तो बस उसे टटोलने का ही प्रयास
कर रही है कि उसके बलात्कार होने से क्या हुआ है?
क्या होने वाला है और क्या हो सकता है? किन्तु बालमंडली इस
आंतरिक मर्म को समझ पाने में असमर्थ थी। अतः मोनू दोबारा पूछता है –
“फिर क्या किया था
अंकल ने?”
प्रिया जो अचानक चुप
होकर किसी सोच में डूब गई थी, मोनू के पूछने पर उसका ध्यान टूटता है और वह शुष्क
भाव से बोलती है – “रात को तो अंकल ने मेरे कपड़े भी खोल
दिए थे। मुझे पकड़ा था, साथ में सुलाया भी था। लेकिन उसके बाद... उसके बाद... बहुत
जोरों का दर्द हुआ... और अब भी दुखता है...।”
संवादहीनता की एक ऐसी
स्थिति जो मां की प्रिया के साथ थी और अब प्रिया की बालमंडली के साथ है, जिसमें
पूरा माहौल मूक दर्शक बना हुआ है। कुछ कहने को बचा है... परंतु क्या? वह खुद भी नहीं जानती। एक आशंका जो मन
में है, बाहर भी है, किन्तु शब्द नहीं। शायद आह-कराह में ही सारे शब्द निकल जाते
हैं। एक महासमर जो अंदर में चल रहा है किन्तु बाहर उसकी छाया कुछ और है। बच्चों की
ऐसी मानसिक अराजकता ही उसे बच्चा बनाती है। परंतु क्या ये उसकी निर्बलता है? शायद नहीं! तभी तो प्रत्येक घटना का सुखद पहलू
बच्चों का स्वार्थपरक दृष्टिकोण पल भर में बता सकता है।
प्रत्येक सृष्टि एक संपूर्ण जीवन
है और जीवन अंतर्द्वन्द्व से होकर गुजरता है। इस अन्तर्द्वन्द्व का प्रारंभिक क्षण
इन बालकों के छोटे से सीमाहीन दिमाग में उथल-पुथल मचा रहा है।
फिर से स्वार्थ की नई
कड़ी जुड़ती है। सब सोचते हैं कि इस बलात्कार ने प्रिया में बदलाव ला दिया है। सब
उसे प्यार करते हैं, मानते हैं, फुटबॉल भी मिला, टॉफी भी देते हैं। स्कूल से भी
छुट्टी है, मैडम भी याद करती हैं, अर्थात सब कुछ अच्छा हो रहा है...। इसलिए प्रिया
भाग्यशाली है कि उसके साथ बलात्कार हुआ।
“काश मेरे साथ भी बलात्कार होता!”
एक आह जो सभी के मन
से निकलती है क्योंकि इस बलात्कार से उन सबके जीने के ढंग में भी बदलाव आ जाएगा।
बाद में बलात्कार के लिए सबमें सहमति हो जाती है।
“मैं तो पापा-मम्मी के
साथ ही सोता हूं। रात को मैं भी कपड़े खोलकर पापा को कसके पकड़ लूंगा, फिर मेरा भी
बलात्कार हो जाएगा।” मोनू ने कहा।
“अरे पागल, बलात्कार
पापा नहीं कर सकते न! वो तो रमण अंकल
करेंगे।” प्रिया कहती है।
“रजत सर भी तो कर सकते
हैं।” श्वेता ने टोका।
“हां, हां।” सबकी सहमति होती है।
“किन्तु ये दोनों तो
जेल में हैं, अब क्या करें?”
तभी
चंचल की सलाह से सबकी आंखों में चमक पैदा हो जाती है। चंचल कहता है -
“मेरे चाचा थाने में
पुलिस हैं। हम उनको बोलेंगे कि हमको रजत सर से कुछ पूछना है। फिर हम सब मिलकर रजत
सर को बलात्कार करने के लिए कहेंगे। तब हमें भी सब प्यार करेंगे।”
चंचल
के प्रस्ताव पर सबकी सहमति हो जाती है और बालमंडली प्रिया के घर से इसी आशा में
निकल पड़ती है।
(ये
कहानी हरीश चंद्र बर्णवाल की तीसरी किताब और कहानी संग्रह “सच कहता हूं” में छपी है। ये किताब वाणी प्रकाशन से
प्रकाशित हुई है)
लेखक से संपर्क करें – hcburnwal@gmail.com
COPYRIGHT @ HARISH CHANDRA BURNWAL
वाणी प्रकाशन से प्रकाशित सच कहता हूं –
किताब में ये कहानी छपी हुई है