कैमरा सच नहीं बोलता
पांच राज्यों में हुए चुनाव में अगर कोई सबसे बड़ा हीरो बनकर उभरा है तो वो हैं मुलायम सिंह
यादव के बेटे अखिलेश यादव और अगर किसी को सबसे बड़ा झटका लगा है तो वो हैं राहुल
गांधी। लेकिन ये सब कुछ क्या अचानक एक दिन में हो गया? क्या अचानक किसी हवा के
झोंके की तरह अखिलेश लोगों के मन मस्तिष्क में छा गए? आखिर क्यों लोगों ने एकबारगी ये
भरोसा कर लिया कि अब अखिलेश उनकी कायाकल्प कर देंगे? जाहिर है ये अकस्मात नहीं था
कि 6 मार्च को चुनाव का रिजल्ट आया और अखिलेश विजेता की तरह हर तरफ छा गए या
फिर एक ही दिन में राहुल गांधी की हार हो गई। ये भी नहीं हो सकता कि अचानक उत्तर प्रदेश
की जनता को सपने में आभास हुआ हो कि अखिलेश यादव ही उनके सपने को पूरा कर सकते हैं
और लोगों ने उन्हें जिता दिया हो।
इसका मतलब है कि जमीनी स्तर पर उत्तर प्रदेश में ऐसा बहुत कुछ चल रहा था,
जिसका अंदाजा या तो टेलीविजन मीडिया को नहीं था या फिर टेलीविजन के पत्रकार समझना
या दिखाना ही नहीं चाहते थे। गौर से देखिए तो देश के सबसे बड़े सूबे में हो रहा चुनाव दो युवा
चेहरे के बीच की लडाई थी। एक तरफ कांग्रेस के युवराज यानी राहुल गांधी थे तो दूसरी तरफ
समाजवादी पार्टी के टीपू यानी अखिलेश यादव थे। अब अखिलेश की राहुल गांधी से तुलना तो
छोड़िए, बल्कि प्रियंका गांधी की जितनी कवरेज टेलीविजन मीडिया ने की है, उसका एक
फीसदी हिस्सा भी कैमरा अखिलेश को रिकॉर्ड नहीं कर पाया। प्रियंका गांधी ने एक बार फिर
चुनावी मौसम में प्रकट होकर अमेठी और रायबरेली में करीब दो हफ्ते तक लगातार चुनाव
प्रचार किया। इस दौरान टीवी न्यूज चैनलों ने न सिर्फ इनका लगातार कवरेज किया, बल्कि
इसके मायने भी निकाले जाते रहे कि कैसे प्रियंका एक समझदार राजनीतिज्ञ बन गई हैं? कैसे
इंदिरा के बाद प्रियंका लोगों के दिलो दिमाग में छा गई हैं? कैसे प्रियंका गांधी ने इस बार रैलियों
की जगह छोटे-छोटे जनसभा आयोजित कर चुनाव प्रचार का तरीका ही बदल दिया है? कई
बारगी तो ऐसा लगा कि मानो यूपी के 403 सीटों में हो रहे चुनाव में सिर्फ प्रियंका ही छा गई हों,
कहीं अखिलेश का नामोनिशान तक नहीं!!!
मतलब साफ है कि जो शख्स पिछले कई सालों से यूपी की जमीन पर इतनी मेहनत
कर रहा था, वो मीडिया की नजर में बेकार था। करीब दो हफ्ते का प्रियंका का चुनाव प्रचार भी
अखिलेश पर भारी पड़ रहा था। यही नहीं चुनाव और उसके पहले के कुछ सालों को जोड़ दें तो
राहुल गांधी को लेकर टीवी मीडिया ने जितनी कवरेज की होगी, उतना तो तमाम राजनीतिक
दलों की रैलियों को लेकर भी नहीं किया गया होगा। अब जब स्थिति साफ हो गई है तो राहुल
गांधी और अखिलेश यादव की तुलना करना बेहद जरूरी है। कैमरों की नजर से हर इंसान इस
बात को तो जानता है कि यूपी चुनाव में राहुल गांधी ने काफी मेहनत की है... लेकिन सवाल ये है
कि अखिलेश यादव ने कितनी मेहनत की? जरा तुलनात्मक आंकड़ों के जरिये इसे देखते हैं।
चुनाव को लेकर राहुल गांधी ने सिर्फ यूपी में 29,000 किलोमीटर की यात्रा की।
इसमें से 320 किलोमीटर रोड शो और बस से 60 किलोमीटर की यात्रा शामिल है, लेकिन
ज्यादातर यात्रा उड़न खटोले से रही। वहीं अखिलेश यादव ने कुल 32,000 किलोमीटर की यात्रा
की। इसमें 20,000 किलोमीटर हेलिकॉप्टर से सफर किया। जबकि 12,000 किलोमीटर तो
सिर्फ अपने क्रांति रथ को लेकर पूरे उत्तर प्रदेश में घूमे। यही नहीं 250 किलोमीटर तो वो सिर्फ
अपने चुनाव चिह्न साइकिल को लेकर अलग-अलग चुनाव क्षेत्रों तक पहुंचे। एक तरफ जहां
राहुल गांधी ने 280 जनसभाएं और रैलियां कीं, वहीं अखिलेश यादव ने 410 जनसभाओं में
शरीक होने के अलावा 700 रैलियों को भी संबोधित किया। कुल मिलाकर अगर राहुल गांधी ने
खुद को उत्तर प्रदेश तक ही सीमित रखा और जमकर मेहनत की तो अखिलेश यादव ने भी
कम मेहनत नहीं की। इस बात को यहां की जनता ने भी न सिर्फ महसूस किया बल्कि राहुल
गांधी से ज्यादा अखिलेश यादव पर भरोसा भी किया। लेकिन न्यूज चैनलों के कैमरों ने कभी
इसे नहीं देखा। ये कैमरे तो सिर्फ राहुल गांधी के पीछे ही भागते रहे। ऐसा दिखाते रहे कि इस बार
राहुल गांधी और प्रियंका गांधी के पीछे एक नई क्रांति होने वाली है। इसका मतलब ये भी है कि
इन कैमरों ने यूपी की जमीन में हो रही बदलाव की आहट को महसूस ही नहीं किया?
एक और आंकड़ा आपके सामने रखता हूं। सिर्फ अमेठी, रायबरेली और
सुल्तानपुर में प्रियंका और राहुल ने 300 जनसभाएं की। ये वो इलाका है जो शुरू से ही कांग्रेस
का गढ़ रहा है। यही नहीं प्रियंका गांधी ने खुद को इन्हीं इलाकों में सीमित रखा था। प्रियंका ही
नहीं उनका पूरा परिवार मसलन प्रियंका के पति रॉबर्ट वाड्रा, उनके दोनों बच्चे भी इस प्रचार में
साथ रहे। लेकिन नतीजा क्या रहा। रायबरेली की सभी पांच सीटें कांग्रेस हार गईं। आपको बता
दें कि यहां खुद कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी लोकसभा का चुनाव लड़ती हैं। अमेठी में 5 में से
तीन सीटों पर कांग्रेस पार्टी की हार हुई। यहां से खुद राहुल गांधी सांसद हैं। इसके अलावा
सुल्तानपुर की पांच सीटों में भी कांग्रेस हार गई। यानी एक तरफ अखिलेश यादव जहां-जहां
गए वहां उनका डंका बजा, लेकिन कांग्रेस युवराज अपने किले को भी बचाने में नाकाम साबित
हुए।
अब जरा एक और तस्वीर देखिए। उत्तर प्रदेश में दलितों के घर खाना
खाने और ठहरने की तस्वीर आपने टीवी न्यूज चैनलों में खूब देखी होगी। ब्रेकिंग न्यूज की
पट्टी पर हर वक्त चमकने वाली खबरों में अव्वल रहीं। लेकिन इन इलाकों में क्या हुआ???
2011 में राहुल गांधी लखनऊ के सरोजनी नगर में एक गरीब के घर ठहरे। इसी साल झांसी के
मौरानी पुर और हमीरपुर में भी अलग-अलग गरीबों के यहां ठहरे। लेकिन सभी तीन इलाकों की
सीटों पर कांग्रेस की बुरी हार हुई। इससे पहले 2009 में भी श्रावस्ती और अमेठी में वो गरीब
लोगों के यहां ठहरे। लेकिन यहां भी कांग्रेस को कोई फायदा नहीं हुआ। राहुल गांधी ने इन
वाकयों को भुनाने का कोई मौका नहीं छोड़ा, जबकि टीवी पत्रकारों ने भी इसका इतना बेहतरीन
कवरेज किया मानो राहुल गांधी इन्हीं के घर में ठहरे हों। लेकिन बकौल अखिलेश यादव ये सब
दिखावा था... क्योंकि वो दलित के घर ठहरते नहीं, बल्कि उनका खुद का रसोइया ही दलित है।
इसलिए उन्हें ये सब कहने या दिखाने की जरूरत नहीं पड़ती।
जरा सोचिए क्या टीवी या प्रिंट में कभी भी इस तरह से अखिलेश यादव की चर्चा
हुई? क्या कभी भी अखिलेश यादव की क्रांति रथ यात्रा को इतनी तवज्जो दी गई? क्या कभी
समाजवादी पार्टी के टीपू को लेकर प्रिंट या टीवी न्यूज चैनलों में खुद को चुनावी पंडित समझने
वाले टीवी पत्रकारों ने कोई गंभीर चर्चा की? अगर आप ध्यान दें तो एक बार चुनाव के दौरान
अखिलेश की बड़ी-बड़ी खबर जरूर चली। लेकिन वो उस समय जब उन्होंने मजाक में ये कहा
था कि माया सरकार में सुबह वाली दवा के
साथ-साथ शाम वाली दवा भी महंगी हो गई है। यानी शराब पर उनके मजाकिया लहजे में की
गई टिप्पणी को ही मसालेदार तरीके से पेश किया गया। लेकिन समझने वाले ये जानते हैं कि
अखिलेश ने इस मजाक में भी एक गंभीर मुद्दा उठाया था।
जिस खबर पर आज चुनावी रिजल्ट आने के बाद मीडिया में चर्चा हो रही है। ये
बदलाव सालों से समाजवादी पार्टी में हो रहा था। इस बदलाव का सपना भी अखिलेश आम लोगों
के बीच दिखाने की कोशिश कर रहे थे। लेकिन क्या कभी भी मीडिया ने इसे लोगों के बीच पेश
करने की कोशिश की? कभी समाजवादी पार्टी परंपरावादी पार्टी जरूर रही हो, अंग्रेजी और
कंप्यूटर विरोधी भले ही इसकी पहचान रही हो। लेकिन हकीकत ये है कि सालों पहले अखिलेश
ने इस पहचान को ध्वस्त कर दिया। हर वक्त अपने साथ आईफोन, ब्लैक बेरी और आई पैड
रखने वाले अखिलेश ने अपने चुनावी मेनिफेस्टो के जरिये भी अपनी सोच उजागर कर दी।
मैसूर से सिविल इंजीनियरिंग और ऑस्ट्रेलिया से पर्यावरण इंजीनियरिंग की पढ़ाई करने वाले
अखिलेश में कभी किसी बात की अकड़ पैदा नहीं हुई। फर्राटेदार अंग्रेजी बोलने वाले अखिलेश
को कभी भी मीडिया के सामने भी लोगों ने अंग्रेजी बोलते नहीं सुना होगा। पर हकीकत ये है कि
अखिलेश ने कभी भी अंग्रेजी या कंप्यूटर का विरोध नहीं किया। जाहिर है अखिलेश यादव ने न
सिर्फ खुद को बदला बल्कि समाजवादी पार्टी को भी बदल दिया। ये बदलाव उन्होंने जमीनी
स्तर पर भी किया... आम लोगों के बीच इसका भरोसा बहाल करने में भी कामयाब रहे। लेकिन
मीडिया ने न तो इसे महसूस किया और न ही जो जमीनी स्तर पर हो रहा था, उसे तवज्जो दी।
ऐसे में सबसे बड़ा सवाल है कि क्या इतना सब कुछ करने के बाद भी लोगों ने मीडिया की तरफ
पलटकर भी देखा? लोगों ने क्या मीडिया की कवरेज पर भरोसा किया या फिर अखिलेश यादव
की मेहनत पर? साफ है वक्त आ गया है कि टीवी न्यूज के कैमरे सिर्फ बड़े चेहरों को कैद करने
या फिर गांधी परिवार का पिछलग्गू बनने की बजाए उन लोगों को रिकॉर्ड करे, जो लोगों के बीच
जाकर न सिर्फ मेहनत करते हैं, बल्कि आम जनता के बीच अपना असर पैदा करने में भी
कामयाब होते हैं।
हरीश चंद्र बर्णवाल
एक न्यूज चैनल में वरिष्ठ पत्रकार हैं