मंगलवार, 17 जुलाई 2012

प्रधानमंत्री जी कुछ तो कीजिए




लेखक हरीश चंद्र बर्णवाल


             प्रधानमंत्री जी कुछ तो कीजिए

देश इस समय एक विकट स्थिति से गुजर रहा हें। महंगाई आसमान छू रही है, पेट्रोल की कीमतों में दिन दुनी रात चौगुनी बढ़ोतरी हो रही है, हर तरफ घोटालों का राज है, एक बार फिर मंदी का डर सता रहा है, दुनिया भर की मल्टीनेशनल कंपनियां देश को आंखे तरेर रही हैं। इस देश का हर इंसान भगवान भरोसे है... क्योंकि उसे समझ में नहीं आ रहा कि आखिर इस देश का माय-बाप कौन है। लेकिन इस समय इससे भी बड़ा सवाल पैदा हो चुका है और वो है देश के प्रधानमंत्री के काम करने के तरीके को लेकर। एक साथ तीन ऐसी घटनाएं हुईं, जिसके बाद सीधे-सीधे प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह सीधे सवालों के घेरे में हैं।
                            विपक्ष ने तो हमेशा से प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह पर सवाल उठाया। आडवाणी ने तो पिछले लोकसभा चुनाव में ही उन्हें कमजोर प्रधानमंत्री करार दिया। हालांकि वो खुद ही मात खा गए। लेकिन इस बार प्रधानमंत्री पर हमला बोलने की शुरुआत की है टीम अन्ना ने। कमान संभाली खुद गांधीवादी अन्ना हजारे ने। अन्ना ने सीधे-सीधे कोल आवंटन में एक सरकारी रिपोर्ट को आधार बनाकर प्रधानमंत्री को कठघरे में खड़ा कर दिया। अन्ना के मुताबिक जिस समय कोयला मंत्रालय प्रधानमंत्री के अंतर्गत था, उस दौरान जिस तरह से कोयला ब्लॉकों को नीलामी की जगह बांटा गया, उससे देश को दो लाख करोड़ रुपये का नुकसान हुआ। इसके बाद दूसरा बड़ा हमला किया उद्योगपतियों ने। इंफोसिस के संस्थापक नारायण मूर्ति और विप्रो के अध्यक्ष अजीम प्रेमजी ने भी देश के नेतृत्व के खिलाफ ही नजरें टेढ़ी कीं। अजीम प्रेमजी ने कहा कि भारत में इस समय कोई नेता नहीं है और देश में कामकाज बिना नेता के चल रहा है। यही नहीं उन्होंने कहा कि अगर यही हाल बना रहा तो ये देश सालों पीछे चला जाएगा। गौरतलब है कि पिछले साल भी प्रेमजी ने कहा था कि सरकार में शामिल नेता निर्णय लेने में सक्षम नहीं हैं। इसके अलावा इन्फोसिस के प्रमुख रहे नारायण मूर्ति ने भी कह दिया कि सरकार की नीतियों के कारण देश की छवि गिरी है। उन्होंने कहा कि मनमोहन सिंह ने ही 1991 में आर्थिक उदारीकरण को लागू किया था, इसके बाद जब वो प्रधानमंत्री बने तो लोगों को बहुत उम्मीदें थीं, लेकिन वो उम्मीदों पर खरा नहीं उतर पाए।
                           प्रधानमंत्री पर तीसरा और सबसे बड़ा हमला हुआ सियासी तौर पर। पहली बार अपने ही सहयोगियों ने अप्रत्यक्ष रूप से मनमोहन सिंह की कार्यशैली पर सवाल खड़े कर दिए। इनकी नेतृत्व क्षमता पर दाग लगा दिया। राष्ट्रपति के नाम को लेकर दिल्ली में ममता बनर्जी और मुलायम सिंह यादव ने संयुक्त प्रेस कॉन्फ्रेंस कर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का नाम ही राष्ट्रपति के लिए आगे बढ़ा दिया। इसमें कोई दोमत नहीं कि संविधान के मुताबिक राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री के पद में बड़ा फर्क होता है। राष्ट्रपति एक रबर स्टांप के सिवा कुछ नहीं, लेकिन प्रधानमंत्री पर पूरे देश की जिम्मेदारी होती है। सही मायने में सरकार की अगुवाई और देश को विकास के राह पर ले जाने की जिम्मेदारी इन्हीं की होती है। ऐसे में मनमोहन का नाम राष्ट्रपति के लिए आगे बढ़ाने का क्या मतलब है? क्या सहयोगी दलों ने मनमोहन सिंह की नेतृत्व क्षमता से भरोसा खो दिया है? ऐसा पहली बार हुआ है कि मौजूदा प्रधानमंत्री का नाम ही राष्ट्रपति के लिए आगे बढ़ाया गया हो। वो भी यूपीए सरकार में सबसे बड़ी सहयोगी तृणमूल कांग्रेस की तरफ से। ममता और मुलायम के इस बयान को कांग्रेस इसलिए भी हल्के में नहीं ले सकती क्योंकि इनके समर्थन के बिना किसी भी सूरत में कांग्रेस यूपीए के तमाम सहयोगियों को जोड़कर भी बहुमत हासिल नहीं कर पाएगी। इसके बाद तो समाजवादी पार्टी के कद्दावर नेता आजम खान ने ये तक दिया कि राष्ट्रपति के लिए ऐसा शख्स चाहिए जो हमेशा चुप रहता हो। इसके लिए मनमोहन सिंह फिट हैं। मान भी लिया जाए कि कांग्रेस की सरकार मुलायम को सीबीआई का डर दिखाकर समर्थन हासिल कर ले, लेकिन ममता के समर्थन का क्या करेंगे। उन्हें तो किसी से डर नहीं है। साथ ही जिस तरह से प्रधानमंत्री को लेकर तमाम धड़ों से बयानबाजी हो रही है, उससे पूरी सरकार की विश्वसनीयता खतरे में है।
                      इन सवालों और हमलों के बीच अब सीधे प्रधानमंत्री के ऊपर आते हैं। इसमें कोई दोमत नहीं कि प्रधानमंत्री एक ईमानदार छवि की शख्सियत हैं। ये मुश्किल ही है कि उनके खिलाफ कोई दाग ढूंढ लाया जाए। कोयला आवंटन के मामले में भले ही अन्ना ने प्रधानमंत्री के खिलाफ आरोप लगाए हों, लेकिन खुद अन्ना मानते हैं कि हो सकता है कि इसमें प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को कोई फायदा नहीं हुआ हो। प्रधानमंत्री ने भी एक बयान देकर कहा कि अगर उनके खिलाफ भ्रष्टाचार का एक भी आरोप साबित हुआ तो वो सार्वजनिक जीवन से संन्यास ले लेंगे। लेकिन सवाल ये है कि आखिर उनकी जिम्मेदारी का पैमाना क्या है। क्या प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ये कहकर बच सकते हैं कि भ्रष्टाचार के इन मामलों में उनका कोई हाथ नहीं है, उन्होंने तो कुछ किया ही नहीं। कभी-कभी प्रधानमंत्री ये कहकर बचना चाहते हैं कि गठबंधन की भी अपनी मजबूरी होती है। इसके बाद न तो वो कुछ कहते हैं और न ही कुछ करते हैं। क्या हमें ऐसा ही प्रधानमंत्री चाहिए जो कोई न कोई मजबूरी बनाकर न कुछ कार्रवाई करे और न ही कुछ कहे? प्रधानमंत्री पर सियासी तौर पर इतना बड़ा हमला हुआ, उद्योगपतियों ने सवाल उठाए। लेकिन किसी भी मामले में प्रधानमंत्री ने 2-3 दिन गुजर जाने के बाद भी कुछ नहीं कहा। न सहयोगियों से बात की और न ही देश के उद्योपतियों को बुलाकर उनसे सवाल जवाब किया गया, ताकि उनकी परेशानी समझी जा सके। ऐसे में प्रधानमंत्री जी आपसे शिकायत ये नहीं कि आपने किसी घोटाले को अंजाम दिया बल्कि सबसे बड़ी शिकायत ये है कि आप कुछ करते क्यों नहीं। 2जी घोटाले से लेकर तथाकथित कोयला आवंटन घोटाले में आप क्यों सख्त मैसेज देने से चूकते रहे। महंगाई हो या विकास दर, आपने आगे बढ़कर कोई ठोस कदम क्यों नहीं उठाया। इस समय हर किसी की नजरें आप पर टिकी हैं, ऐसे में ये कहकर काम नहीं चलेगा कि आपने तो कुछ किया ही नहीं, बल्कि आपको कुछ न कुछ करना ही होगा।