शनिवार, 16 अगस्त 2008

अथ श्री न्यूज़ भाषा कथा

टेलीविजन की सबसे बड़ी विशेषता अगर इसकी दृश्य क्षमता यानी इसके विजुअल है, तो इसकी दूसरी बड़ी विशेषता इसकी भाषा है। एक तरह से कहें तो ये दृश्य से किसी भी तौर पर कम नही है। कारण स्पष्ट है। अब विजुअल की कमी नही है। एक तो चैनलों की भरमार हो गई है। ऊपर से इसमे दिखाए जाने वाले ज्यादातर न्यूज पहले से ही तय होते हैं। चाहे वो हमेशा दिखाए जाने वाली क्रिकेट की खबर हो या फिर फिल्मी मसाला। कुछेक एक्सक्लूसिव स्टोरी या फिर स्टिंग ऑपरेशन को छोड़ दें तो सभी चैनलों के पास कमोबेश एक जैसी ही तस्वीरें होती हैं। साफ है खेल करने का सबसे ज्यादा मौका और स्कोप भाषा के स्तर पर ही हो रहा है।

भाषा के कसाव से आप घटिया विजुअल वाली स्टोरी को भी रोचक बना सकते हैं। जबकि भाषा में लिजलिजापन हो तो आपकी बढ़िया स्टोरी भी बेकार हो जाएंगी। आपके लिखे दो चार शब्द किसी को भी विचलित कर सकते हैं, उस पर असर डाल सकते हैं। खास तौर पर भावनात्मक कहानियाँ लिखने, राजनीतिक व्यंग्य कसने और फिल्मी मसाला तैयार करने के लिए आपके पास भाषा ही सबसे बड़ा हथियार है जहाँ सीधे तौर पर कुछ न कहते हुए भी आप बहुत कुछ कह जाते हैं। न्यूज चैनलों पर कभी सरसरी निगाह डालें तो आपको मिलेगा कि अच्छी खासी कहानियाँ फाइल फुटेज पर चलती है । ऐसे में आप समझ सकते है कि इसमे सिर्फ भाषा की नवीनता ही मौजूद होती है। लेकिन टेलीविजन की अपनी भाषा है। ये भाषा सरकारी तौर पर कही जाए .... तो हिन्दी भी नही है। या फिर उर्दू या दूसरी तो कतई नहीं। ये बोलचाल की भाषा है। जो अपनी एक अलग शक्ल लेती जा रही है। मसलन .....

- सरलता इसका गुण है, इसलिए सीधा-सपाट कहने का चलन है।
- सूत्र रूप में ज्यादा प्रचलित हो रहा है, विज्ञापनों की भाषा की तरह।
- न्यूज चैनलों में भाषा को लेकर कोई पूर्वाग्रह नही है।
- इसमें किसी भी भाषा के शब्द आसानी से इस्तेमाल किए जा सकते हैं, खासकर अंग्रेजी और उर्दू की तो बल्ले - बल्ले है।
- कविताई शैली भी इसकी विशेषता बनती जा रही है, जी हाँ तुकबंदी की बात कर रहा हूँ, हेडलाइन में तो आखिरी शब्दों के मिलान का हुनर देखने को खूब मिलेगा।
- आलंकारिक शब्दों का खूब इस्तेमाल होता है।
- यह मितभाषी भाषा है। यानि कि कम-से-कम बोलकर ज्यादा - से ज्यादा बातें कहना चाहता है।
- यह भाषा अपने आप में स्वतंत्र नही है। सच मायने में भाषा विकलांग है क्योंकि इसे पुरी तरह से अपने आप को प्रकट करने लिए दृश्यों का सहारा लेना पड़ता है।
- टेलीविजन की भाषा में पूर्ण विराम का प्रयोग या तो होता नहीं या फिर इसका मतलब कुछ दूसरा होता है।

* स्लग - टॉपिक या एस्टन-सुपर लिखने में इसका इस्तेमाल नही होता।
* हेडलाइन लिखने में भी इसका प्रयोग नही होता
* टेलीविजन में सिर्फ भाषा का ही नही, बोलने वाले का भी कमाल होना चाहिए। ऐसे में न्यूज का वक्ता जहाँ थक जायगा पूर्ण विराम समझो लग गया, वैसे ये सही नही है, लेकिन ज्यादातर रिपोर्टर या एंकर ऐसा ही करते हैं, कहाँ रुक जायेंगे कोई नही बता सकता
* पुरी स्टोरी में सबसे अहम् और जरूरी ये है कि जब स्टोरी शुरू हो तो फिर आखिर तक लोगों के लिए दिलचस्पी बना रहे। ऐसे में आप कहते - कहते पुरी तरह से आराम की मुद्रा में नही आ सकते बल्कि एंकरिंग या वायसओवर के दौरान ये लगते रहना चाहिए की आप कुछ और भी बताने वाले हों। ऐसे में हम रुकने की बजाय म्यूजिक या किसी और एम्बियेंस से अपनी बात को समाप्त करते हैं।
* अगर स्टोरी खत्म हो रही है तो भी हम इस तरह का एहसास बनाये रखेंगे कि थोडी देर में कुछ दिलचस्प पहलू को लेकर फिर हाजिर होंगे। ऐसे में पूर्ण विराम की कोई जरूरत ही नही बचती।
* टेलीविजन क्षणों में जीता है, इस संदर्भ में तो पूर्ण विराम का कोई मतलब नही होता लेकिन इन बातों के अलावा पूर्ण विराम खूब लगाते हैं, लेकिन वहाँ नही जहाँ की वाक्य खत्म होती है। बल्कि वहाँ लगाते हैं जहाँ न्यूज पढने वाले को रुकना होता है। और ये वाक्य के बीच में भी हो सकता है। बल्कि जहाँ एक भाव पूरा रहा हो और दूसरा शुरू हो रहा हो। एक वाक्य में एक साथ कई भाव आ सकते हैं। जाहिर है टेलीविजन न्यूज चैनलों की भाषा न सिर्फ अलग है। बल्कि आम लोगों के बेहद करीब भी। जिसे कोई भी आसानी से समझ सकता है। ऐसे में न्यूज चैनल और हिन्दी भाषा न सिर्फ एक दूसरे के बेहद करीब होते जा रहें हैं, बल्कि एक दूसरे को आत्मसात भी करते जा रहे हैं।लेकिन टेलीविजन न्यूज ने अब हिन्दी भाषा के साथ खेलना भी शुरू कर दिया है। इसके शब्दों के मायने बदलने शुरू कर दिए हैं। साथ ही इसमें कई ऐसी मान्यताएँ जुड़ती जा रही है, जिसका पालन न करने पर आप भाषा के मामले में बेहद कमजोर हो सकते हैं ....आखिर कैसे और क्यों , ये बताएँगे एक छोटे से ब्रेक के बाद .....अगले अंक में

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