लघु कथा
भारत बांग्लादेश सीमा पर मुठभेड़ जारी थी। हर दिन तीस-चालीस लोगों के मारे जाने की खबर आ रही थी। मीडिया ने भी इस खबर को खूब तवज्जो दिया। एक बार भारतीय लोगों को जानवरों की तरह लकड़ी से बांधकर ले जाए जाने की तस्वीर जब कुछ स्थानीय अखबारों में छपी। तो न्यूज चैनलों के लिए मानो भरा पूरा मसाला ही मिल गया। इस खबर को कई दिनों तक दिखाते रहे... और लोगों के भीतर राष्ट्र भावना जगाने की कोशिश करते रहे। धीरे-धीरे इस खबर का इतना पोस्टमार्टम कर दिया कि कहने को कुछ बचा ही नहीं। यहां तक कि इसकी तुलना भारत पाकिस्तान और भारत चीन युद्ध से भी कर चुके थे। बांग्लादेश को 1971 की जंग के दौरान मदद करने की दुहाई का एकालाप भी कर चुके थे। हालांकि इस समस्या का तो कुछ हल नहीं हुआ, लेकिन जहां अखबारों के किसी कोने में अब भी छोटी मोटी खबरें छप रही थीं, वहीं टेलीविजन न्यूज चैनलों पर यकायक ये खबरें चलनी बंद हो गईं।
कुछ दिनों बाद ठीक उसी समय एसाइनमेंट पर प्रिंट के एक बड़े पत्रकार कमल ने ज्वाइन किया था। कमल पहली बार टेलीविजन न्यूज चैनल की मीटिंग में शामिल थे। उन्होंने मीटिंग के दौरान उत्साहित होकर बताया कि बहुत बड़ी खबर है। भारत बांग्लादेश सीमा पर फिर चालीस लोग मुठभेड़ के दौरान मारे गए... इतना सुनते ही आउटपुट के सीनियर प्रोड्यूसर रमाकांत ने जवाब दिया, सिर्फ 40 मरे... और ये बड़ी खबर है... ये तो हम पहले भी चला चुके हैं... इसमें नया क्या है। जब सौ या डेढ़ सौ लोग मर जाएं तब बताइयेगा।
--------- हरीश चंद्र बर्णवाल
रविवार, 28 सितंबर 2008
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