रविवार, 28 दिसंबर 2008
जबान संभाल के
रविवार, 30 नवंबर 2008
भाषा का खेल - पार्ट 4
टेलीविज़न पत्रकारिता में भाषा का जो अहम रोल है, वही भाषा में शब्दों का। लेकिन शब्दों की खूबसूरती को पिरोना भी एक बेहतरीन कला है। अगर आपके वाक्य ही अर्थहीन , उलझाऊ या जटिल होंगे ,तो ये समझ लीजिए कि आपने भाषा का कत्ल कर दिया। इस लेख के माध्यम से मैं आपको वाक्य संबंधी कुछ मोटी -मोटी जानकारियां दूंगा जिनका टेलीविजन में बहुत अधिक महत्त्व है। वाक्य संबंधी - क्या न करें
वाक्य कभी भी लंबे नही होने चाहिए।
वाक्य में ज्यादा,क्योंकि,इसलिए,चूँकि जैसे शब्दों का प्रयोग ना करें।
वाक्य में छह या सात से ज्यादा शब्द ना हों।
वाक्य में कभी भी गौरतलब है,ध्यातव्य है या फिर इस तरह के कोई उद्धरण नही दिए जाने चाहिए। दरअसल ये शब्द ही टेलीविजन पत्रकारिता में फिट नही बैठते। आपको हमेशा विजुअल को ध्यान में रखना होता है। इसलिए जो कहना हो , साफ तौर पर कहें। पुरानी चीजों को भी याद कराएँ - लेकिन सीधा समय , साल या बाकी जानकारी के साथ बताएं।
वाक्य को जटिल नही बनाना नही चाहिए, ऐसा इसलिए कि टेलीविजन में एक बार बोल दिए जाने के बाद दुबारा उसके सुनने की गुंजाईश नही बची रहती। ऐसे में अगर एक बार कई चीज समझ में न आए तो फिर उसे दुबारा समझने का कोई चारा नही बचता। फिर दर्शकों के लिए आपका चैनल देखने का कोई मतलब नही।
वाक्य की शुरुआत कभी भी अधूरे अर्थ वाले शब्दों से नही की जानी चाहिए, मसलन क्योंकि , लेकिन, परन्तु, किंतु।
हिन्दी में वाक्यों का एक सामान्य फॉरमेट है, सर्वनाम - मुख्य क्रिया - सहायक क्रिया, इस भाषा की खासियत है, साथ ही पत्रकारिता के लिहाज से भाषा की ये शक्ति है। दरअसल इस फॉरमेट में आप अधूरे वाक्य को पढ़कर ही समझ सकते हैं कि आने वाला शब्द क्या होगा। मसलन अगर पहाड़ से पत्थर गिरने की कोई घटना हुई हो और उसे आपको बताना हो तो ... आज पहाड़ से पत्थर ( गिरा।) उसमें कई लोग घायल ( हो गए। ) प्रशासन लोगों की मदद ( कर रहा है ।)लेकिन लोगों तक राहत नही पहुँच ( पा रहा है ।) हालाँकि जिन लोगों तक राहत के सामान ( पहुंचे हैं ), वे बेहद खुश दिखाई ( दे रहे हैं ।)तो आप देख सकते हैं कि हिन्दी की ये एक ऐसी शक्ति है जिससे पढने वाले का कुछ परिश्रम बच जाता है। ऐसे में न्यूजरीडर बड़े इत्मिनान से आगे के शब्दों को बिना पढ़े समझ सकता है। इतना ही नही इस फॉरमेट की खास बात यह नही कि ये लोगों को आसानी से समझ में आता है। वो भी जो कम पढ़े - लिखे हैं। इसलिए भाषा के इस नियम का हमेशा पालन करना चाहिए। इस फॉरमेट के साथ सामान्य तौर पर छेड़ - छाड़ नही करना चाहिए।
वाक्य संबंधी क्या करें
वाक्य हमेशा छोटे होने चाहिए, कोशिश करें कि एक वाक्य में ज्यादा से ज्यादा छह -सात से ज्यादा शब्द ना आएँ। वैसे इसकी कोई सीमा नहीं,आप चाहें तो तीन-चार शब्दों में भी अपनी बात कह सकते हैं।
वाक्य बेहद सरल होने चाहिए, टेलीविज़न पत्रकारिता करने वाले इसे गांठ बांधकर रख लें। क्योंकि टेलीविज़न में दर्शक का ध्यान एक साथ कई चीजों पर होता है, जैसे - दृश्य , आवाज , स्क्रीन पर दिखने वाले शब्द (स्लग, एस्टन), ग्राफिक्स, टिकर, एंकर का आउटलुक। अब जरा आप खुद सोंचिए कि एक दर्शक समाचार देखने के लिए कितनी मेहनत करता है। ऐसे में अगर आपकी भाषा जरा सा भी बोझिल हुई तो समझिए कि दर्शक तुंरत आपका चैनल बदल देगा।
वाक्य को हमेशा कर्त वाच्य में लिखा जन चाहिए , न कि कर्म वाच्य में। ये हिन्दी का अपना रूप है, अपनी ताकत है। बातचीत के लिए भी आसान माना जाता है. मसलन, अगर कही पुल का उदघाटन किया गया हो तो हमेशा लिखा जाएगा कि प्रधानमंत्री ने आज पुल का उदघाटन किया। वहीं कर्मवाच्य में लिखे जाते तो - पुल का उदघाटन प्रधानमंत्री के द्वारा किया गया। या फिर ये भी लिख देते कि प्रधानमंत्री के द्वारा पुल का उदघाटन किया गया।
ऊपर के दोनों वाक्यों को सुनकर और पढ़कर खुद भी फैसला कर सकते हैं कि कौन सा वाक्य ठीक है, और कौन सा ठीक नही है। इसमें दूसरा लिखा वाक्य बेहद उलझाऊ है,ये टेलीविजन का अपना गुण भी नही है। ऐसा लग रहा है कि मानो सूचना देने के लिए ही ये बात कही गई है। इसमें जीवंतता का अभाव है, जबकि पहले वाक्य को बड़ी ही ताकत से बोलते हैं। इससे ये भी झलकता है कि न सिर्फ ये बड़ी सूचना है, बल्कि ये आपके लिए बेहद जरूरी भी है। हाँ एक बात और,पहला वाक्य हिन्दी की अपनी भाषा है, बोलचाल का गुण है। जबकि दूसरा वाक्य अनुवाद की भाषा है। ये अंग्रेजी भाषा का गुण है। हिन्दी में द्वारा की मनाही का सबसे कारण यही है।
पैकेज के सभी फारमेट में वाक्यों की रचना अलग होती है। मसलन एंकर लिखने में हमेशा वर्तमान काल का प्रयोग किया जाना चाहिए।
वाक्य को हमेशा ऐसे लिखा जाना चाहिए कि लगे कि घटना का अभी से ही ताल्लुक है। वाक्य को वर्तमान काल में ही लिखें। हिन्दी फिसलने वाली भाषा है, हिन्दी तरन्नुम की भाषा है। बोलने के क्रम में हमेशा ये भाषा फिसलती है। मैंने ऊपर बताया कि किस तरह से हिन्दी का सामान्य फॉरमेट है - सर्वनाम - मुख्य क्रिया - सहायक क्रिया का। ऐसे में जब भी कोई हिन्दी बोलता है, तो उसे आने वाले कई शब्द यूँ ही मिल जाते हैं। जो हमेशा एक जैसे होते हैं। ऐसे में ये भाषा फिसलती है, अगर कोई अटक - अटक कर पढता है तो समझ लीजिए कि उसे या तो हिन्दी की समझ नही है या फिर उसे पढ़ना या बोलना नही आता। यहाँ भाषा का विन्यास हमेशा एक खास तरीके से ही आगे बढ़ता है - मसलन : मै दफ्तर जा (रहा हूँ), मै आम खा (रहा हूँ), मेरी साइकिल खराब (हो गई), प्रिंस गड्ढे में (गिर पड़ा), राजधानी एक्सप्रेस तीन घंटे की देरी (से चल रही है)।ये तो बात हुई वाक्य सम्बन्धी सावधानियों की। लेकिन टेलीविजन की पत्रकारिता में इतना जानना ही काफी नही। बल्कि भाषा में इन दिनों चमत्कार करने की परंपरा शुरू हो चुकी है। अगर आप टेलीविजन न्यूज़ चैनलों की स्क्रीन को देखें तो उसमें कई बारगी तस्वीरें दिखती ही नही। बस शब्द नाचते नजर आते हैं। फिर भी आप उस कार्यक्रम को देखने के लिए विवश हो जाते हैं। ये सब शब्दों और वाक्यों के चमत्कार से हो रहा है। अगर आप ये चमत्कार नही जानते , या फिर नही करना चाहते तो बस समझ लीजिए कि आप टेलीविजन पत्रकारिता के लिहाज से आउटडेटेड हैं।
शुक्रवार, 10 अक्तूबर 2008
क्या करें और क्या न करें ---भाषा का खेल - पार्ट 3
पिछले कई लेख से हम आपको यह बता रहे हैं कि टेलीविजन न्यूज़ चैनलों में भाषा की कितनी अहमियत है। लेकिन इस बार हम भाषा की इकाई यानि शब्द के बारे में चर्चा करेंगे। दरअसल ये छोटी सी इकाई ही भाषा को सुंदर,सुडौल, और सुसज्जित बनाती है। वाक्य विन्यास का सुव्यवस्थित क्रम शब्दों की कसौटी पर ही परखा जाता है। शब्द जितने संयमित होंगे, आपकी भाषा उतनी ही मर्यादित होगी और आम लोगो के बेहद करीब भी। लेकिन आज कई शब्दों को लेकर भ्रम की स्थिति बनी हुई है। मसलन अगर तमाम चैनलों पर नज़र डालें तो कई शब्द या फिर नाम अलग - अलग चैनलों में अलग - अलग तरीके से लिखे जाते हैं जैसे -- ऐलान - एलान- ईमान - इमान / ईनाम - इनाम- ईरान - इरान / ईराक - इराक- सचिन तेंदुलकर - सचिन तेंडुलकर- सौरव गांगुली - सौरभ गांगुली ज़ाहिर है इसे देखकर आम लोगों में भ्रम की स्थिति पैदा होना स्वाभाविक है। ऐसे में शब्दों का एक व्यवस्थित कोष तैयार करना बेहद जरूरी है। वैसे इस मुद्दे पर बाद पर बाद में चर्चा होगी। आज हम आपको बतायेंगे कि टेलीविजन न्यूज़ चैनलों की भाषा में शब्द संबंधी क्या करना चाहिए और क्या नही।
शब्द संबंधी - क्या न करें १) कभी भी भारी - भरकम शब्द का इस्तेमाल न करें।२) हिन्दी के कठिन शब्दों का इस्तेमाल न करें ।३) संस्कृतनिष्ठ शब्दों का दुराग्रह ठीक नही।४) हिन्दी के वैसे शब्द जिसका प्रचलन आम लोगों में नही उसका प्रयोग न करें।५) अन्य भाषाओं के इस्तेमाल में सावधानी बरतें।६) संस्कृत के शब्दों के साथ ही उर्दू को भी ठूंसना ठीक नही कहा जा सकता।७) प्राय ऐसा देखने में आता है कि महाप्राण शब्दों का प्रयोग ठीक नही माना जा सकता , (महाप्राण शब्द वो हैं, जिनमें किसी वर्ग के दुसरे या चौथे वर्ण का प्रयोग हुआ हो) हालांकि आजकल इसका खूब इस्तेमाल हो रहा है। ८) कई ऐसे शब्द हैं जिनके शुद्ध रूप तो कुछ और हैं , लेकिन बोलचाल में लोग उसका अपभ्रंश रूप प्रयोग में लाते हैं।९) टेलीविजन में उसने या उन्होंने का इस्तेमाल नही होता, बजाए इसके सीधे नाम का इस्तेमाल करते हैं। अगर पैकेज के एंकर में इस्तेमाल कर भी लें तो भी पैकेज अन्दर तो बिल्कुल भी इस्तेमाल नही करना चाहिए। क्योंकि किसी का विजुअल दिखते हुए आप उसने या उन्होंने कहेंगे तो टेलीविजन के व्याकरण के हिसाब से ये एक बड़ी गलती होगी। और इससे पैकेज से आत्मियता घटेगी। सीधा नाम लेना जरूरी है।शब्द संबंधी - क्या करें १) हमेशा आसान शब्दों का ही प्रयोग करें२) हिन्दी के ऐसे शब्द जिसे गैर हिन्दी भाषियों के लिए भी समझना बेहद आसान हो३) उर्दू के आसान शब्दों का इस्तेमाल जरूर करें , इसके कई कारण हैं - भाषा की व्यापकता का पता चलता है। शब्दों में गूंज पैदा होती है , जो कि सुनने में अच्छा लगता है। सही मायने में हिन्दी और उर्दू कीआपसी लडाई कुछ लोगों की निजी लडाई के अलावा कुछ और नही है, कुछ धार्मिक कट्टरपंथियों ने इस तरह के विभाजन पैदा किए हैं। भारत जैसे देश में शब्दों के मिले - जुले रूप को प्रयोग करने से सामाजिक समरसता भी पैदा होगी। इससे कई देशों में हिन्दी चैनलों के आत्मसात करने की परम्परा बढेगी।४) छोटे - छोटे शब्दों के इस्तेमाल को बढावा दें। ५) आंचलिक शब्दों का इस्तेमाल जरूर करें, लेकिन कोशिश ये होनी चाहिए किधीरे -धीरे मानक शब्दों का प्रयोग बढे, इससे ये सीखने - सिखाने का भी एक प्रभावी माध्यम बन सकता है। ६) विदेशी शब्दों को हमेशा सावधानीपूर्वक ही इस्तेमाल करना चाहिए। इसके लिए इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि जिस भाषा से शब्दों को लिया गया है, वहाँ पर उसका उच्चारण कैसा होता है। लेकिन वैसा का वैसा ही रुढ़ रूप में नही लिया जा सकता है। बल्कि उसे अपनी शक्ल में ढाला जा सकता है। ७) कुछ ऐसे शब्दों का इस्तेमाल किया जा सकता है, जो आम लोगों की जेहन में तो सामान्य नही है, लेकिन परिस्थिति के अनुसार जरूरी और कहने में आसान होता है। हालांकि यहाँ इस बात का ध्यान रखे किइस शब्द के साथ उसका सामान्य अर्थ भी बताएं और लगातार कुछ समय तक उस शब्द का प्रयोग करते रहें। इससे वो शब्द लोगों की जुबान पर चढ़ सकता है। इस अर्थ में टेलीविजन सिखाने का भी माध्यम हो सकता है। जैसे - टशन, किन्नर८) तकनीकी शब्दों के प्रयोग में उसके हिन्दी प्रयोग का दुराग्रह ना पालें। बल्कि कई बार ऐसा होता है किलोग उसके हिन्दी अर्थ की बजाए उसके अंग्रेज़ी शब्द को बड़ी आसानी से समझ सकते हैं। इस सन्दर्भ में एक वाकया याद आ रहा है... मेरे एक मित्र जो पटना के हैं, उन्हें सचिवालय जाना था। मित्र जहाँ पर खड़ा था उसे पता नही था कि सचिवालय पास में ही है। जहाँ पैदल ही आसानी से पहुँचा जा सकता है। लेकिन रिक्शेवाला पता नही क्या सोंचकर दूर किसी दुसरे ऑफिस में ले गया। टैब मित्र महाशय रिक्शावाले से झल्ला पड़े कि मुझे तो सचिवालय जाना है , तुम मुझे कहाँ ले आए। लेकिन रिक्शावाला समझने में असमर्थ था कि मित्र महोदय किस जगह जाने की बात कह रहे हैं। इसके बाद वो रिक्शावाला से कहने लगे की जब तुम्हे पता नही था तो बैठाया क्यों। वह गुस्से में कहने लगे कि तुम्हे पटना सैकरेटेरीयट के बारेमें पता नही । तो रिक्शावाला कहने लगा कि आपको सैकरेटेरीयट जाना है , वो बगल में ही था, आपने पहले क्यों नही बताया। हालांकि सचिवालय भी अच्छा और लोकप्रिय शब्द है, लेकिन देखिए अंग्रेज़ी और हिन्दी शब्दों के इस्तेमाल से क्या - क्या हो सकता है। तो ये है शब्दों का खेल, वैसे टेलीविजन के व्याकरण में वाक्य संबंधी भी कई खेल चल रहे हैं, इससे अनजान रहना किसी के लिए भी घातक हो सकता है। वाक्य संबंधी चर्चा करेंगे, लेकिन अगले लेख में एक छोटे से ब्रेक के बाद।
गुरुवार, 9 अक्तूबर 2008
कहीं सठिया तो नहीं गए
मैं बात कर रहा हूं कलर्स पर आने वाले सीरियल बालिका वधू की... जिसमें न तो एकता कपूर का घटिया अंदाजिर भी दिखेगा और न ही आधुनिक पौराणिक कथाओं की झलक। ऐसे में यही सवाल उठता है कि एक क्रूर सच्चाई पर आधारित बालिका वधू सीरियल आज देश का नंबर एक सीरियल कैसे हो गया? सादा जीवन, सादे लोग, सादगी भरा परिवेश यही सब कुछ तो है बालिका वधू में। फिर ये सोचकर आश्चर्य नहीं होता कि लोगों ने इसे नंबर वन कैसे बना दिया? क्या लोग पागल हो गए या फिर कलर्स वालों ने टीआरपी मीटर में सेंध लगा दी।
वैसे मेरी राय ये है कि अगर आप ये सीरियल एक दो बार ही देख लें तो सब कुछ समझ में आ जाएगा। लोग न तो पागल हुए हैं, और न ही उनके देखने का अंदाज बदला है। बल्कि दर्शकों ने एक बात तो साफ कर दी है अच्छी चीजों को सब देखते हैं। जरूरी नहीं है कि हर चीज एंटरटेनिंग हो और झूठ की बुनियाद पर टिकी हो। पहली बात तो ये है कि बालिका वधू कोई एंटरटेनमेंट सीरियल जैसा नहीं है। ऐसा नहीं है कि इस सीरियल को देखकर कोई फील गुड जैसा माहौल बने, या फिर हिन्दी फिल्मों की तरह हैप्पी एंडिंग हो जाए। यहां आडंबर औऱ कुरीतियों के आवरण में भय का माहौल हर वक्त देखा जा सकता है। यहां पात्रों की हंसी भी डर के साये में पनाह लेती है। किसी भी पात्र को देखकर आप सपने नहीं संजो सकते। आप को मौका मिले तो शायद ही किसी कलाकार की जगह अपने को देखना पसंद करें। लेकिन फिर भी ये सीरियल लोगों को पसंद आ रहा है, तो इसकी वजह ये है कि लोग कहीं न कहीं इस सीरियल में अपनी छवि देखते हैं। अपनी मां, बहन, पत्नी या दूसरे रिश्तेदारों को घुटते हुए देखते हैं, जो शायद उन्हें पसंद नहीं है।
बालिका वधू सिर्फ एक सामाजिक गाथा है, जिसमें हमारे देश की तमाम कुरीतियों को बड़ी ही गहराई से उठाया गया है। इसमें न सिर्फ समाज में फैली बुराइयों को दिखाया जाता है, बल्कि आखिर में एक मैसेज भी दिय़ा जाता है कि किस तरह से ये जुल्म हम लड़कियों या औरतों पर कर रहे हैं। ये सीरियल मुख्यतया बाल विवाह पर आधारित है, लेकिन इसके साथ ही इसमें बेमेले उम्र के लोगों के बीच विवाह, सेक्स, औरतों की त्रासदी, दहेज से जुड़ी बुराइयों को दर्शाया गया है।
सीरियल की एक और सबसे बड़ी ताकत है इसका मूक संवाद। इसमें दिखाया गया है कि कैसे पुराने जमाने में ( वैसे अब भी होता है) घर के लोग ही बात नहीं कर पाते थे। एक दूसरे की मुश्किलों को समझ भी नहीं पाते थे। सास या फिर घर के बुजुर्ग महिलाओं को सताते थे। ऐसे में महिलाएं चुपचाप रहकर भी बात कर लेंती थी। गुरुवार (9 अक्टूबर) को दिखाया गया एपिसोड एक मिसाल है। इसमें दिखाया गया कि गहना शादी के बाद पहली ही रात अपने पति की वासना का शिकार होकर पूजा घर में आती है। आनंदी की सास उसके शरीर पर बसंत के दिए जख्मों के निशान देखती है, लेकिन पूछ नहीं पाती है। इसके बावजूद वो पूजा घर में सबके सामने गहना के साथ मूक संवाद कर लेती है। इस संदर्भ में मुझे एक कविता याद आती है –
कहत नटत रीझत खिझत, मिलत खिलत लजियात
भरे मौन में करत हैं, नैनन ही सों बात
कुछ ऐसी ही बात बड़ी बिंदड़ी या आनंदी की सास गहना से करती है। मौन रहकर भी नैन से बात। और ये सब बड़ी ही सहजता से दिखाया जाता है। इसके लिए किसी इफेक्ट्स का सहारा नहीं लिया जाता। सारा बोझ कलाकारों के सिर पर है। उनकी अच्छी एक्टिंग ही इसमें जान डालती है। जबकि लोगों के लिए इसे सिवाय सहन करने के कोई चारा नहीं है, क्योंकि यही समाज का क्रूर सच है। इस तरह के सीरियल अगर लोग देखते हैं तो साफ है कि उन्हें अच्छी चीजें भी बेहद पसंद है। जाहिर है लोग सठियाये हुए नहीं हैं।
हरीश चंद्र बर्णवाल
रविवार, 28 सितंबर 2008
सिर्फ 40 मरे
भारत बांग्लादेश सीमा पर मुठभेड़ जारी थी। हर दिन तीस-चालीस लोगों के मारे जाने की खबर आ रही थी। मीडिया ने भी इस खबर को खूब तवज्जो दिया। एक बार भारतीय लोगों को जानवरों की तरह लकड़ी से बांधकर ले जाए जाने की तस्वीर जब कुछ स्थानीय अखबारों में छपी। तो न्यूज चैनलों के लिए मानो भरा पूरा मसाला ही मिल गया। इस खबर को कई दिनों तक दिखाते रहे... और लोगों के भीतर राष्ट्र भावना जगाने की कोशिश करते रहे। धीरे-धीरे इस खबर का इतना पोस्टमार्टम कर दिया कि कहने को कुछ बचा ही नहीं। यहां तक कि इसकी तुलना भारत पाकिस्तान और भारत चीन युद्ध से भी कर चुके थे। बांग्लादेश को 1971 की जंग के दौरान मदद करने की दुहाई का एकालाप भी कर चुके थे। हालांकि इस समस्या का तो कुछ हल नहीं हुआ, लेकिन जहां अखबारों के किसी कोने में अब भी छोटी मोटी खबरें छप रही थीं, वहीं टेलीविजन न्यूज चैनलों पर यकायक ये खबरें चलनी बंद हो गईं।
कुछ दिनों बाद ठीक उसी समय एसाइनमेंट पर प्रिंट के एक बड़े पत्रकार कमल ने ज्वाइन किया था। कमल पहली बार टेलीविजन न्यूज चैनल की मीटिंग में शामिल थे। उन्होंने मीटिंग के दौरान उत्साहित होकर बताया कि बहुत बड़ी खबर है। भारत बांग्लादेश सीमा पर फिर चालीस लोग मुठभेड़ के दौरान मारे गए... इतना सुनते ही आउटपुट के सीनियर प्रोड्यूसर रमाकांत ने जवाब दिया, सिर्फ 40 मरे... और ये बड़ी खबर है... ये तो हम पहले भी चला चुके हैं... इसमें नया क्या है। जब सौ या डेढ़ सौ लोग मर जाएं तब बताइयेगा।
--------- हरीश चंद्र बर्णवाल
शनिवार, 16 अगस्त 2008
अथ श्री न्यूज़ भाषा कथा
भाषा के कसाव से आप घटिया विजुअल वाली स्टोरी को भी रोचक बना सकते हैं। जबकि भाषा में लिजलिजापन हो तो आपकी बढ़िया स्टोरी भी बेकार हो जाएंगी। आपके लिखे दो चार शब्द किसी को भी विचलित कर सकते हैं, उस पर असर डाल सकते हैं। खास तौर पर भावनात्मक कहानियाँ लिखने, राजनीतिक व्यंग्य कसने और फिल्मी मसाला तैयार करने के लिए आपके पास भाषा ही सबसे बड़ा हथियार है जहाँ सीधे तौर पर कुछ न कहते हुए भी आप बहुत कुछ कह जाते हैं। न्यूज चैनलों पर कभी सरसरी निगाह डालें तो आपको मिलेगा कि अच्छी खासी कहानियाँ फाइल फुटेज पर चलती है । ऐसे में आप समझ सकते है कि इसमे सिर्फ भाषा की नवीनता ही मौजूद होती है। लेकिन टेलीविजन की अपनी भाषा है। ये भाषा सरकारी तौर पर कही जाए .... तो हिन्दी भी नही है। या फिर उर्दू या दूसरी तो कतई नहीं। ये बोलचाल की भाषा है। जो अपनी एक अलग शक्ल लेती जा रही है। मसलन .....
- सरलता इसका गुण है, इसलिए सीधा-सपाट कहने का चलन है।
- सूत्र रूप में ज्यादा प्रचलित हो रहा है, विज्ञापनों की भाषा की तरह।
- न्यूज चैनलों में भाषा को लेकर कोई पूर्वाग्रह नही है।
- इसमें किसी भी भाषा के शब्द आसानी से इस्तेमाल किए जा सकते हैं, खासकर अंग्रेजी और उर्दू की तो बल्ले - बल्ले है।
- कविताई शैली भी इसकी विशेषता बनती जा रही है, जी हाँ तुकबंदी की बात कर रहा हूँ, हेडलाइन में तो आखिरी शब्दों के मिलान का हुनर देखने को खूब मिलेगा।
- आलंकारिक शब्दों का खूब इस्तेमाल होता है।
- यह मितभाषी भाषा है। यानि कि कम-से-कम बोलकर ज्यादा - से ज्यादा बातें कहना चाहता है।
- यह भाषा अपने आप में स्वतंत्र नही है। सच मायने में भाषा विकलांग है क्योंकि इसे पुरी तरह से अपने आप को प्रकट करने लिए दृश्यों का सहारा लेना पड़ता है।
- टेलीविजन की भाषा में पूर्ण विराम का प्रयोग या तो होता नहीं या फिर इसका मतलब कुछ दूसरा होता है।
* स्लग - टॉपिक या एस्टन-सुपर लिखने में इसका इस्तेमाल नही होता।
* हेडलाइन लिखने में भी इसका प्रयोग नही होता
* टेलीविजन में सिर्फ भाषा का ही नही, बोलने वाले का भी कमाल होना चाहिए। ऐसे में न्यूज का वक्ता जहाँ थक जायगा पूर्ण विराम समझो लग गया, वैसे ये सही नही है, लेकिन ज्यादातर रिपोर्टर या एंकर ऐसा ही करते हैं, कहाँ रुक जायेंगे कोई नही बता सकता
* पुरी स्टोरी में सबसे अहम् और जरूरी ये है कि जब स्टोरी शुरू हो तो फिर आखिर तक लोगों के लिए दिलचस्पी बना रहे। ऐसे में आप कहते - कहते पुरी तरह से आराम की मुद्रा में नही आ सकते बल्कि एंकरिंग या वायसओवर के दौरान ये लगते रहना चाहिए की आप कुछ और भी बताने वाले हों। ऐसे में हम रुकने की बजाय म्यूजिक या किसी और एम्बियेंस से अपनी बात को समाप्त करते हैं।
* अगर स्टोरी खत्म हो रही है तो भी हम इस तरह का एहसास बनाये रखेंगे कि थोडी देर में कुछ दिलचस्प पहलू को लेकर फिर हाजिर होंगे। ऐसे में पूर्ण विराम की कोई जरूरत ही नही बचती।
* टेलीविजन क्षणों में जीता है, इस संदर्भ में तो पूर्ण विराम का कोई मतलब नही होता लेकिन इन बातों के अलावा पूर्ण विराम खूब लगाते हैं, लेकिन वहाँ नही जहाँ की वाक्य खत्म होती है। बल्कि वहाँ लगाते हैं जहाँ न्यूज पढने वाले को रुकना होता है। और ये वाक्य के बीच में भी हो सकता है। बल्कि जहाँ एक भाव पूरा रहा हो और दूसरा शुरू हो रहा हो। एक वाक्य में एक साथ कई भाव आ सकते हैं। जाहिर है टेलीविजन न्यूज चैनलों की भाषा न सिर्फ अलग है। बल्कि आम लोगों के बेहद करीब भी। जिसे कोई भी आसानी से समझ सकता है। ऐसे में न्यूज चैनल और हिन्दी भाषा न सिर्फ एक दूसरे के बेहद करीब होते जा रहें हैं, बल्कि एक दूसरे को आत्मसात भी करते जा रहे हैं।लेकिन टेलीविजन न्यूज ने अब हिन्दी भाषा के साथ खेलना भी शुरू कर दिया है। इसके शब्दों के मायने बदलने शुरू कर दिए हैं। साथ ही इसमें कई ऐसी मान्यताएँ जुड़ती जा रही है, जिसका पालन न करने पर आप भाषा के मामले में बेहद कमजोर हो सकते हैं ....आखिर कैसे और क्यों , ये बताएँगे एक छोटे से ब्रेक के बाद .....अगले अंक में
रविवार, 3 अगस्त 2008
गंभीर सवाल
शनिवार, 29 मार्च 2008
वर्तिका नंदा सहारा समय में
बुधवार, 26 मार्च 2008
शब्दों का खेल है बीडू
लेखक - हरीश चंद्र बर्णवाल
न्यूज़ चैनलों के अगर हिन्दी भाषा को किसी ने महत्त्व दिलाया है , तो वो है टेलीविज़न न्यूज़ चैनल । पहली बार बाज़ार ने महसूस की हिन्दी भाषा में कितनी ताक़त है । हिन्दी के पत्रकार न सिर्फ़ अपना सीना चौडा करके घूमते हैं , बल्कि ये भी जानते हैं की हिन्दी भाषा पर पकड़ की वजह से ही उनकी रोजी - रोटी कितनी सहूलियत से चल रही है । आज भाषा का जो जो भी जितना बड़ा जानकर है ... वो उतना बड़ा पत्रकार बना हुआ है। दरअसल आज टेलीविज़न न्यूज़ चैनलों के बीच टी आर पी को लेकर जिस तरह की प्रतिस्पर्धा शुरू हो गई है ... उसमे मुकाबले के लिए बहुत कम क्षेत्र बच गए हैं । न्यूज़ चैनलों के पास न तो विजुअल की कमी है और न तकनीक की ... ऐसे मई सारा ज़ोर भाषा पर ही आ टिका है । खास बात ये है की हिन्दी न्यूज़ चैनलों में अंग्रेज़ी भाषा के पंडितों की भी कमी नही है ... लेकिन हिन्दी भासिओं की अपेक्षा अंग्रेजीदां लोगों की ज्यादा पूछ नही है । हालांकि न्यूज़ चैनलों के लिए भले ही हिन्दी भाषा का महत्व बढ़ा हो , लेकिन टेली विज़न पत्रकारिता में हिन्दी भाषा सिकुडटी जा रही है । अब इसे बाज़ार का दबाव कहें या फिर टेलीविज़न का मिजाज़ , लेकिन हकीकत यह है की टेलीविज़न न्यूज़ चैनल ने हिन्दी को महज सैकडों शब्दों की भाषा बनाकर रख दिया है । टेलीविज़न के हिन्दी पत्रकार बनने की इच्छा रखने वाले इसे अपनी सहूलियत मान सकते हैं । यंहा हिन्दी भाषा की कद्र वंही तक जिसे लोग आसानी से पचा लें । इसे हिन्दी के विद्वान दुर्भाग्य कह सकते हैं , तो टेलीविज़न के बुज़ुर्वा पत्रकार इसे इसका सोभाग्य बता सकते हैं । वैसे टेलीविज़न पत्रकार इस पचड़े में न फँसें । हम आपको यह बताने जा रहे हैं की कैसे इस पत्रकारिता में शब्दों का खेल शुरू हो गया है । कैसे नए शब्द आकारलेते जा रहें हैं तो कुछ दम तोड़ते जा रहें हैं । बस आप दो - चार शब्दों का ज्ञान बढाइये , फिर आप भी भाषा के मामले में किसी से पीछे नही रहेंगे ।सबसे पहले बात उन शब्दों की जिनका टेलीविज़न में लगभग इस्तेमाल नही किया जाता । इसकी जगह दूसरेकिसी खास शब्द को जगह दे दिया गई है । जैसे -- पैतृक के लिए पुश्तैनी- निश्चित या अनिश्चित के लिए मियादी या बेमियादी- मंजूरी , अनुमति , स्वीकार , इजाज़त जैसे शब्दों के लिए प्राथमिकता से लिखें ... इजाज़त , मंजूरी , अनुमति , स्वीकार- आवश्यक के बदले जरुरी- नेतृतव की बजाये अगुवाई- अभियुक्त की बजाय आरोपी- भाग लेने की बजाय हिस्सा लेना- संयुक्त की बजाय मिला - जुला या फिर वाक्य के मुताबिक- अनुसार की जगह मुताबिक- वर्ष की बजाय साल- केवल की बजाय सिर्फ़ या बस- सही की बजाय ठीक- स्थिति की बजाये माहौल या हालात- प्रतिबंध की बजाये मनाही या रोक , लेकिन कई बार प्रतिबंध लिखना जरूरी हो जाता है ॥- द्वारा की बजाये जरूरत के हिसाब से कुछ और- निर्णय की बजाये फैसला- क्योंकि या इसलिए का प्रयोग नही- प्रयोग की बजाये इस्तेमाल- विख्यात की बजाये मशहूर- आरंभिक या प्रारंभिक की बजाये शुरूआती- व्यक्ति की बजाये आदमी या लोग- विभिन्न की बजाये अलग - अलग- मामला गर्म होता जा रहा है - मामला तूल पकड़ता जा रहा है- मृत्यु नही लिखते बल्कि मौत या मारे गए- कारण की बजाये वजह- विरुद्ध की बजाये खिलाफ- वृद्धि की बजाये बढोत्तरी- व्यवहार की बजाये सुलूक- अनुसार की बजाये मुताबिक- कार्यवाही और कामकाज को प्राथमिकता में लिखें - कामकाज - कार्यवाही .... हालांकि कई बारगी कार्यवाही लिखना जरूरी हो जाता है- आह्वान की बजाए अपील- न्यायालय या कोर्ट की बजाए अदालत- अफसर या आफिसर नही बल्कि अधिकारी- नेतृत्त्व की बजाए अगुवाई- अतिरिक्त की बजाए अलावा या सिवाए- अवस्था की बजाए हालत- मुहिम और अभियान को वरीयता लिखें- अंदाजा और अनुमान को वरीयता में- अनुकूल की बजाए मुताबिक- फल , परिणाम - नतीजा या अंजाम वरीयता क्रम में- आपत्ति - एतराज- अतिथि - मेहमान- आवश्यक की बजाए जरूरी- आधारभूत ढांचा की बजाए बुनियादी ढांचा- फौज और सेना को वरीयता क्रम में- ख्याति की बजाए मशहूर- जायजा और आकलन वरीयता में- दरख्वास्त और आवेदन वरीयता क्रम में- पक्षपात और भाई -भतीजावाद वरीयता क्रम में- यधपि की बजाए हालांकि , बहरहालकुछ ऐसे शब्द जिनका लिखने में तो बहुत कम इस्तेमाल होता है ... लेकिन एंकरिंग या रिपोर्टिंग के दौरान बोलने में खूब इस्तेमाल होता है ... ये सुनने के लिहाज़ से बहुत अच्छा होता है और इससे टेलीविज़न की खूबसूरती भी झलकती है । - विचार के लिए गौर करना- किस आधार पर की बजाए किस बिना पर- हर दिन की बजाए हर रोज- सभी की बजाए हरकुछ शब्द टेलीविज़न में बड़े ही अच्छे माने जाते हैं - इसका आधार ये है किइन शब्दों मे गूंज है ... इसे बोलते ही एक बिम्ब खड़ा हो जाता है । मसलन- अफरा - तफरी- धर दबोचा- अंधाधुंध- भाई - भतीजावादआज टेलीविज़न न्यूज़ चैनलों में सबसे बड़ी जरूरत भाषाको लेकर है । कोई प्रोग्राम कितना अच्छा होगा । आज इसका सारा दारोमदार स्क्रिप्ट के लेवल पर आ टिका है । आपके लिखे दो शब्द दर्शकों को काफी देर तक रोके रख सकते हैं ...एक छोटे से ब्रेक के बाद ......
रविवार, 2 मार्च 2008
संवेदनहीनता ( पुरस्कृत कहानी )
बहुत दिनों के बाद मुझे कुछ अच्छा असाइनमेंट मिला था। न्यूज़ रूम के भीतर पोप जॉन पाल द्वितीय पर सभी कहानी लिखने और वीडियो एडिटिंग करवाने की ज़िम्मेदारी मुझे दी गयी थी। दरअसल मैंने ही अपने बॉस को बताया था कि पोप की सेहत लगातार गिर रही है । ऐसा लगता है ज़ल्द ही ये भगवान को प्यारे हो सकते हैं। न्यूज़ चैनल के लिए ये एक बहुत बड़ी ख़बर होगी। ऊँचे तबके के लोगों की इस ख़बर पर पैनी नज़र है। क्यों न पॉप पर कुछ अच्छे पैकेज बनाकर पहले से रखे जायें। कभी इनकी मौत हो गई तो फिर हम दूसरे चैनलों के मुकाबले इसे अच्छे से कवर कर पाएंगे । बॉस को ये आईडिया पसंद आया और उन्होंने ये ज़िम्मेदारी मुझे सौंप दी।
'आखिरकार लम्बी बीमारी के बाद पोप जॉन पाल द्वितीय नही रहे।' 'पोप की मौत से पूरी दुनिया में शौक की लहर फ़ैल गई है।' कुछ ऐसी ही शुरुवाती पंक्तियों के साथ मैंने स्क्रिप्ट लिखनी शुरू कर की। हर दृष्टिकोण से मैंने पोप पर कई पैकेज तैयार किए।
लेकिन पोप हैं की लम्बी बीमारी के बावजूद कई दिनों तक लम्बी घडियाँ गिनते रहे। अब मरे, तब मरे की स्थिति थी। इसी में एक हफ्ता गुज़र गया। मैं ज़स्बर्दस्त मेहनत करके अब तक कई पैकेज बना चुका था। लेकिन ये पैकेज तभी चलाये जा सकते थे, जब पोप की मौत हो जाए। इधर पोप न तो पूरी तरह से ठीक हो रहे थे, और न ही उनकी सेहत में सुधार हो रहा था। पर इस चक्कर में मैं पूरी तरह से बेकाम हो गया था। कहाँ तो मैं एक नए कांसेप्ट के साथ आगे बढ़ने की सोच रहा था, लेकिन मेरे सहकर्मी ही मेरा मजाक उड़ा रहे थे की साले कर क्या रहे हो। थक हारकर मैंने एक दिन तय किया की अब सारी स्टोरी लाइब्रेरी में जमा करके किसी दूसरे प्रोजेक्ट में लग जाऊँगा।
एक दिन थका हारा मैं घर पंहुचा की मेरे एक साथी का फ़ोन आया और उसने बताया की पोप की मौत हो चुकी है। मैं काफी खुश हुआ की अब मेरी सभी स्टोरी चलेंगी। मैं बिना देर किए दफ्तर पहुँच गया। तब तक कई स्टोरी चल चुकीं थी। सभी सहकर्मी मुझे बधाई दे रहे थी की मैंने कितना बढ़िया काम किया है। दूसरे चैनल जहाँ पोप की वही घिसीपिटी खबर दिखा रहे थे, वहीं हम इसका बेहतरीन कवरेज सभी एंगल से कर रहे थे। कुछ सहकर्मियों ने बधाई देते हुए कहा की लग ही नही रहा की ये स्टोरी मैंने पोप की मौत से पहले लिखी है। तभी एक शख्श की आवाज़ सुनाई पड़ी की यही तो एक पत्रकार की संवेदनशीलता है।
हरीश चंद्र बर्णवाल
( इस स्टोरी को कथादेश ने पुरस्कृत किया है। )